ज़ख़्म जब राग बनते हैं

01-09-2025

ज़ख़्म जब राग बनते हैं

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

तुमने सुना है कभी
उस बाँसुरी का रुदन? 
जो हर सुर में
अपना दुःख छुपाती है। 
 
काट कर लाया गया था उसे, 
अपने वंशजों की क़तार से। 
छीन लिए गए उसके पत्ते, 
उसकी जड़ें, उसकी मिट्टी। 
उसकी देह में छेद कर
बना दी गई वो
सुरों की दासी। 
 
हर शाम
जब कोई उसके छेदों से
प्रेम गीत गाता है, 
तब वो रोती है। 
हर राग में, 
हर तान में
अपना विलाप घोलती है। 
 
लोग कहते हैं—
“क्या मधुर सुर है!” 
पर कौन जानता है
कि वो मिठास भी
किसी टूटी आत्मा की आवाज़ होती है। 
 
वो हर रात
अपनी कटाई को याद करती है, 
अपनी शाखाओं की
पुरानी छाँव को। 
और चाहती है
कि कभी तो
कोई उस पर हाथ न रखे। 
 
बस ख़ामोश पड़ी रहे
अपने ज़ख़्मों के साथ। 
 
लेकिन नहीं, 
हर बार कोई
उसे उठा लेता है, 
और सुरों में
उसका दर्द बुन देता है। 
 
तुम जब अगली बार
बाँसुरी सुनो, 
तो ध्यान देना—
उस मीठे स्वर में
छुपा हुआ
वो अनकहा विलाप भी सुनाई देगा। 
 
क्योंकि
संगीत में सबसे सुरीला
हमेशा वही होता है
जिसका दिल टूटा होता। 
 
पर वो रोना संगीत बन गया। 
तब जाना—
दर्द जब साँस में ढलता है
तो राग बनता है। 

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