गिरगिट

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कभी देखा है गिरगिट को?
वो नहीं —
जो पेड़ों की डाल पर
रंग बदलता है,
बल्कि वो
जो तुम्हारे-हमारे बीच
चेहरा बदलता है।
 
जो एक पल
सिद्धांत का झंडा उठाता है,
दूसरे पल
सुविधा के रंग में रँग जाता है।
 
जो भीड़ में
नायक बनता है,
अकेले में
सत्ता की परछाई में
सहम जाता है।
 
गिरगिट अब जंगल में नहीं,
कुर्सियों के इर्द-गिर्द
घूमते हैं।
मंचों पर भाषण देते हैं,
ताली बजवाते हैं,
और हर रंग
समय की माँग पर
ओढ़ लेते हैं।
 
सच तो यह है —
रंग बदलना
अब केवल गिरगिट की कला नहीं,
सभ्यता का
अघोषित संस्कार है।
 
जो रंग न बदले,
वो पुराना है,
अड़ियल है,
बेचारा है।
 
और जो गिरगिट की तरह
हर मौसम में
हर व्यवस्था में
हर चेहरे के सामने
एक नया रंग ले आए —
उसे हम
‘समाजधर्मी’ कहते हैं।
 
अब तुम ही तय करो,
तुम गिरगिट से बचे हो?
या
किसी कोने में
तुम भी एक रंग
ओढ़ चुके हो?

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