ओस की बूँदें

01-12-2025

ओस की बूँदें

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 289, दिसंबर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

​यह क्या है, जो रात के गर्भ से जन्मा? 
न वर्षा का वेग, न सरिता का मद। 
केवल अदृश्य आर्द्रता का संचय, 
जो थमा है दूब के मौन पर। 
​हर बूँद नहीं, एक क्षुद्र ब्रह्मांड है। 
उसकी परिधि में, सूर्य का प्रतिबिंब भी
पूरा, अखंड, और शांत दीखता है। 
क्या संपूर्ण सत्य, इतने छोटे दर्पण में समा सकता है? 
​ 
​वे काल की हथेली पर ठहरे हैं, 
क्षणभंगुरता जिनकी एकमात्र आयु है। 
उन्हें पता है—उनका होना ही
उनके विलय का अंतिम सूत्र है। 
यह एक निश्चित विदाई का उत्सव है। 
​जैसे चेतना किसी एक देह में ठहरकर
संपूर्ण विराट का अनुभव करती है, 
वैसे ही ओस, इस धरा पर टिककर, 
आकाश के अनंत को धारण करती है। 
​ 
​जब प्रकाश की प्रथम ज्वाला आती है, 
तो वह उसे भस्म नहीं करती, 
बल्कि उसे मुक्ति देती है। 
वह बूँद, जो इतनी देर तक
अपने 'स्व' के रूप में थी, 
अब भाप बनकर, महासागर में लौटती है। 
 
​यह ओस हमें सिखाती है
सत्य न आकार में है, न ठहराव में। 
सत्य तो उस पारदर्शिता में है, 
जो अंततः शून्य में विलीन होकर, 
अपने होने के अर्थ को सार्थक कर जाती है। 

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