कैक्टस

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 279, जून द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

मैंने सोचा था
फूलों से भरी एक बग़िया उगाऊँगा, 
जहाँ हर रंग की कोमल पंखुड़ियाँ होगी, 
महक होगी, 
मगर उगा पाया . . . 
सिर्फ़ कैक्टस। 
 
क्योंकि
जिन ज़मीनों पर
धूप सख़्त हो जाती है, 
जहाँ रिश्तों की बारिश
बरसना छोड़ देती है, 
जहाँ संवाद
रेत-सा फिसल जाता है, 
वहाँ फूल नहीं, 
काँटे ही उगते हैं। 
 
कैक्टस . . . 
जो अकेले रहना सीख गया है, 
जिसे न सावन की आस, 
न भादों की बूँदों की उम्मीद। 
जो अपने भीतर
पानी छुपाकर
धूप से जूझना जानता है। 
 
कभी देखना, 
उस काँटों की दीवार के पीछे
छुपा होता है
एक हरा, 
कोमल, 
सहमा हुआ दिल, 
जो बस
एक भरोसे भरी छुअन चाहता है। 
 
कैक्टस फूल भी देता है, 
मगर कम, 
क्योंकि उसने सीखा है
कि इस दुनिया में
फूलों से ज़्यादा
काँटों की ज़रूरत होती है। 
 
आज मैं भी
अपने भीतर
एक कैक्टस उगा बैठा हूँ—
कम बोलता हूँ, 
कम चाहता हूँ, 
क्योंकि जानता हूँ
कि ज़्यादा चाहतें
सबसे ज़्यादा ज़ख्म देती हैं। 

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