चित्र बोलते हैं

15-09-2025

चित्र बोलते हैं

अमरेश सिंह भदौरिया (अंक: 284, सितम्बर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

दीवार पर टँगा
धूल से ढँका एक चित्र—
जैसे बीते समय ने
अपनी साँसें
काँच में बंद कर दी हों। 
 
जहाँ कभी नन्हे पाँव
धूप में लहराते थे, 
वहीं आज
एक सूनी ख़ामोशी
पुरानी लोरी की परछाईं बन गई है। 
 
चित्र बोलते हैं—
जब शब्द चुप होते हैं, 
तब वे तुम्हारे भीतर
भूली-बिसरी ऋतुएँ
धीरे-धीरे उगाने लगते हैं। 
 
वह पहली बारिश
जिसमें कोई बचपन भीगा था, 
या वो अंतिम विदाई
जिसमें आँसू और आशीर्वाद
एक साथ गिरा था। 
 
चित्र थमे नहीं होते, 
वे बहते हैं—
हर नज़र में
एक नई कहानी रचते हुए, 
हर मौन में
एक बीता आलाप टाँकते हुए। 
 
कभी वे माँ की हँसी होते हैं, 
कभी पिता की झुकी पलकें। 
कभी कोई ताज़ा उल्लास, 
तो कभी कोई
अधूरा स्वप्न। 
 
चित्र बोलते हैं—
अगर तुम सुन सको, 
तो हर फ़्रेम
एक जीवित आत्मकथा है।

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