कारवाँ
अमरेश सिंह भदौरियाधूप से कहाँ अलग हुई है तपन।
तलवे दोनों सेंक रही रेत की जलन।
बरगद की छाँव में
ठहरने का वक़्त कहाँ,
बढ़े चलो बढ़े चलो
कह रहा कारवाँ,
पंछी लौटे नीड़ में
लगी जब थकन॥1.॥
धूमिल हुए चिन्ह कैसे
पथ की पहचान के,
आँधी की शरारत है
या तेवर तूफ़ान के,
ढूँढ़ रहा दोषियों को
विद्रोही मन॥2.॥
अरुणमयी सुबह हो
या शबनमी हो शाम,
मज़बूरी चलने की
रहती आठो याम,
अहर्निश सेवामहे-सा
मंत्रों का मनन॥3.॥
वेदमंत्रों ने कब कहा
तुम यातना सहो,
पीड़ाएँ झेलकर भी
मौन यूँ रहो,
तिमिर का तिलिस्म भेदो
"अमरेश" बन किरण॥4.॥
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