महावर
अमरेश सिंह भदौरिया
पाँवों की अंगुलियों के बीच
सजती है एक लाली—
महावर।
न लिपस्टिक, न सिंदूर,
फिर भी
शृंगार का सबसे मौन
और सबसे गूढ़ प्रतीक।
विवाह के पहले दिन
जब माँ ने
अपनी उँगलियों से
मेरे पाँवों पर उसे लगाया,
तो लगा—
प्रेम की पहली भाषा
शब्दों में नहीं,
रंगों में उतरती है।
महावर—
जो सिर्फ़ सजावट नहीं,
एक संकेत है
कि अब ये पाँव
किसी और की दहलीज़ के लिए
अर्पित हो गए हैं।
पर क्या सिर्फ़ दहलीज़ों तक सीमित है महावर?
या वह एक चलती स्त्री की थाती है—
जो हर पदचिह्न में
अपना समर्पण छोड़ जाती है?
उसकी गंध में होती है
हल्दी, चंदन, आँच और अश्रु,
जिसे वह पहनती है
बिना शोर के—
हर मौसम में।
जब महावर फीकी पड़ने लगे,
तो समझ लेना—
स्त्री ने मुस्कानें ओढ़ रखी हैं
पर उसके भीतर
प्रेम की कोई रेखा
धीरे-धीरे मिट रही है।
महावर केवल रंग नहीं,
वह वो अस्फुट भाषा है
जिसमें स्त्री अपनी चुप्पियाँ
हर रोज़ कहती है—
पाँवों के नीचे,
लाल रेखाओं में।
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