दिल से ग़ज़ल तक

 

212    212    212    212 
 
कल जली जो ग़रीबों की थीं झुग्गियाँ
होगी आबाद जाने वो कब बस्तियाँ 
 
घर वो लगते नहीं, हों न अपने जहाँ 
ईंट गारे के लगने लगे वो मकाँ 
 
आदमी चाहे कितना भी भटके मगर 
चैन मिलता उसे घर है उसका जहाँ
 
जैसे इक हो अनार और बीमार सौ
वैसे ही नौकरी इक अनेक आर्ज़ियां 
 
इस प्रलय काल में खो गया आदमी
अब न इन्सनियत का है नामो-निशाँ
 
कम ज़ियादा न देती है क़िस्मत कभी
चाहे जितनी भी रगड़े कोई एड़ियाँ
 
जो पड़ौसी थे सुख दुःख के साथी बने 
आज भी याद आती है वो बस्तियाँ 
 
वो जो बेघर हुए, दरबदर आज तक
पूछ लो उनसे ‘देवी’ है क्या आशियाँ

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