दिल से ग़ज़ल तक

 

2122    2122    2122    212
 
ज़िन्दगी करना बसर उसके सिवा मुश्किल मगर
बेवफ़ा से करते रहना है वफ़ा मुश्किल मगर
 
घर बनाना ग़ैरों के दिल में न था मुश्किल मगर
अपनों के दिल में क्यों बस जाना लगा मुश्किल मगर
 
उलझनों का दौर बीता पर न सुलझे मामले
बीच का आसान हल पाना लगा मुश्किल मगर
 
जूझना लहरों से इतना भी नहीं मुश्किल रहा
हाँ रवाँ सैलाब को था रोकना मुश्किल मगर
 
चलते चलते एक ऐसे मोड़ पर आकर रुके
हो गया ऐसे में चुनना रास्ता मुश्किल मगर
 
ज़िन्दगी में आजकल बदलाव लाना है ज़रूर
पाट पाना पीढ़ियों की ये ख़ला मुश्किल मगर
 
चेहरा पढ़ने की कहाँ तौफ़ीक़ ‘देवी’ अब रही
किसके दिल में चल रहा क्या जानना मुश्किल मगर

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