दिल से ग़ज़ल तक

 

212     212    212    212
 
बेवफ़ा से मुलाक़ात होती रही
अपनी पहचान यारो वो खोती रही
 
वो थी सपनों की सहरा में तन्हा खड़ी
आँसुओं से वो पलकें भिगोती रही
 
जो था बोया वो पाया किसे दोष दे 
बोझ अपने किये का वो ढोती रही
 
ज़्यादती की थी बरदाश्त हद से अधिक
टूटी हिम्मत तो पलकें भिगोती रही 
 
क्या ग़ज़ल गीत क्या, क्या है लेखन-कला
वो तो शब्दों के मोती पिरोती रही
 
सींच पायी न सपनों को ‘देवी’ कभी
बीज सहरा में फिर भी वो बोती रही

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