दिल से ग़ज़ल तक


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सागर के तट पे आते ही जिसने रची ग़ज़ल
बनके लहर वो बह रही है हर गली ग़ज़ल
 
यह शायरी क्या चीज़ है अल्फ़ाज़ का सुरूर
सुनते ही इक नशे की तरह छा गई ग़ज़ल
 
ठहराव का न था जहां नामोनिशाँ वहीं
अलबेली इक मचलती नदी सी लगी ग़ज़ल
 
जब जब उठा तूफ़ान था सोचों में यूँ मची
हलचल थी शब्द शब्द में उफनती नदी ग़ज़ल
 
गुमनाम रास्तों से गुज़रती थी जब कभी
शायर की देख शोखियाँ पथरा गयी ग़ज़ल
 
जिसमें कली का ज़िक्र था, ख़ुशबू थी फूल की
भंवरों को देख-देख खिली मनचली ग़ज़ल
 
मंज़िल मिलेगी कब उसे, उसको न था पता
‘देवी’ मुसाफिरों सी भटकती रही ग़ज़ल 

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