दिल से ग़ज़ल तक

 

122    122    122    122
 
ग़लत फ़हमी की ईंट छोटी थी फिर भी
अना की वो दीवार चौड़ी थी कितनी
 
‘मैं ज़िंदा हूँ ज़िंदा हूँ’ चीख़ा बहुत वो
दरिंदो ने आवाज़ दफ़ना दी उसकी
 
ग़लत को ग़लत क्या कहा मैंने लोगो
मैं उनकी नज़र में ही मुजरिम खड़ी थी
 
मैं थी तो नहीं फिर भी दोषी था माना
सियासत की जब भी वहाँ बात निकली
 
गवाही हुई और सज़ा भी हुई पर
वो दीवार शक़ की वहीं की वहीं थी
 
किया पीठ पर वार जिसने भी हमपर
थी उसकी हमेशा क्यों गर्दन झुकी सी
 
वो दिन भी क्या दिन थे, गए बीत कल जो
पकड़ने को तितली उड़ा करती ‘देवी’

<< पीछे : 5. ज़िन्दगी करना बसर उसके सिवा… आगे : 7. माफ़ कैसे गुनह हुआ यारो >>

लेखक की कृतियाँ

ग़ज़ल
आप-बीती
कविता
साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो