दिल से ग़ज़ल तक

 

2122    2122    2122    212
 
हमसफ़र बिन है सफ़र ये जाने मंज़िल है कहाँ
हमक़दम बन साथ मेरे चल रहीं तन्हाइयाँ
 
भीड़ में ख़ामोशियाँ भी चीख़ती चिल्लाती हैं
शोर की गर्दिश में उनको कौन सुनता है यहाँ
 
दिल में सन्नाटे घनेरे इतने तो पहले न थे
वो भी घबराकर हैं कहते जायें तो जायें कहाँ
 
यूँ मची हलचल अजब सी दिल के तहख़ाने में है
कैसे लिख दूँ पन्नों पर वो अनकही सी दास्ताँ
 
हर तरफ़ साए अँधेरों के घने घेरे है क्यों
चारसू कोहरा है फैला चाँद तारे है कहाँ
 
धड़कनों के ताल सुर पर शब्द थिरके आज यूँ
रागिनी जैसे सजा बैठी हो महफ़िल फिर वहाँ
 
जाने कब आएगा ‘देवी’ वो समाँ जब साथ होंगे
ये उजाले और अँधेरे कुछ न होगा दरमियाँ

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