दिल से ग़ज़ल तक

 

2122    2122    2122    212  
 
राज़ की है बात जो भी राज़ उसको रहने दो
सीप में मोती है जो अनमोल उसको बनने दो 
 
बाग़ में देखी जो कलियाँ, मन मचलता ही रहा 
रहने दो बेदाग़ उनको, फूल बनके खिलने दो 
 
आँधी तूफ़ाँ के इशारे आये दिन बदला किये 
चल रहा है रुख़ हवा का, जैसे वैसे चलने दो
 
मामले उलझे हैं हाथों की लकीरों की तरह 
शतरंजी है खेल सबको चाल अपनी चलने दो 
 
कौन कहता है यहाँ खिलवाड़ है ये ज़िंदगी 
जंग का मैदां है सारा, जंग सबको लड़ने दो 
 
हाथ की ‘देवी’ लकीरें आपसी उलझन में हैं 
इम्तिहानों की घड़ी से पार उनको पड़ने दो

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