दिल से ग़ज़ल तक

 

शायरी भाषा नहीं है, तुकबंदी नहीं वो कहानी है 
शायरी दिल से दिल के जज़्बातों की तर्जुमानी है . . . 

शायरी का सिलसिलेवार सफ़र दिल से शुरू होकर अब ग़ज़ल तक आन पहुँचा है। जो सीखा, जो पाया, उसे अपनाया और अपनी सोच को शब्दों में ढालकर अपने मन के तमाम अहसासात शेर के रूप में लिखती रही। 
शायरी के एक नहीं अनेक रूप है, अनेक रंग है, जो समय के साथ बदलते हुए हालात में गर्भ में अपना वुजूद पाते है वहाँ जहाँ:

करती है रक़्स झूमके सागर की मस्तियाँ 
पतवार बिन भी पार थीं काग़ज़ की कश्तियाँ . . .

जी ये है मन का विश्वास जो हर असम्भव कार्य को सम्भव बनाने की राहें सामने ले आता है। जैसे मैं, इस फ़न से नावाक़िफ़ चल पड़ी उस राह जहाँ रास्ते ख़ुद ब ख़ुद सामने आते रहे। मैं बस चलती रही, रुकी नहीं। 

क्या ग़ज़ल गीत क्या, क्या है लेखन कला
मैं तो शब्दों के मोती पिरोती रही . . . 

ये मेरे लिए उन दुआओं का असर है जो मेरे उस्ताद पिंगलाचार्य ‘महरिष’ जी ने इस देन को मेरी झोली में डाल दिया और लिखा:

नागरानी की ये तो शुरूआत है 
और होने को ग़ज़लों की बरसात है (दिल से दिल तक-प्रस्तावना में) 

हो अगर मख़मली ग़ज़ल ‘महरिष’
क्यों न उसका हो क़द्रदां रेशम . . . महरिष

मेरी मेहनत लगन और सीखने की तत्परता से वे बहुत ख़ुश थे। और फिर यू.के. के आदरणीय प्राण शर्मा जी ने अपने विचार इसी संग्रह में रखते हुए लिखा है: यहाँ मैं महादेवी वर्मा की पंक्तियाँ कहना चाहूँगा जिनके शब्दों से दर्द उसी तरह टपकता है जैसे नागरानी जी के शेरों से:

मैं नीर भरी दुःख की बदरी 
उमड़ी कल थी मिट आज चली 

यह 2008 की बात है पर आज भी मेरे मन की भावनाएँ वही हैं, लेखन वही है जो मैं अपने इर्द गिर्द देखती हूँ, महसूस करती हूँ एवं अभिव्यक्त करती हूँ। मेरी निष्ठा को जानकार, पहचानकर शायद लन्दन के महावीर शर्मा जी ने भी इसी संग्रह के प्रवेश पन्नों में मेरा शेर लिख दिया:

हौसलों को न मेरे ललकारो 
आँधियों को भी पस्त कर देंगे। 

अब ये हस्तियाँ हमारे बीच नहीं, पर उनकी हौसला अफ़ज़ाई बरसों बाद मेरे मन की उस लौ को जलाए रखने में मददगार हुई हैं . . . 

ग़मे-दुनिया का तर्जुमाँ ‘देवी’
है मेरी शायरी तो क्या कीजे (नरहरी जी) 

दिल के जज़बात मैं लिखूँ कैसे
कम है लफ़्ज़ों का सिलसिला देखो (सुमन घई) 

अपने बीते पलों का दोहराव भी कितना मुश्किल है। किसी ने क्या ही ख़ूब कहा है:

कितना दुश्वार है दिल की कहानी लिखना
जिस तरह बहते हुए पानी पे पानी लिखना 

आज पीछे मुड़कर देखती हूँ तो लगता है हर फ़न की ख़ासियत इंसान को बहुत कुछ सिखा जाती है, जो याद बनकर दिल में बस जाती है, वर्ना क्या कुछ नहीं लिखा गया है आद जुगाद से। सच तो ये है: 

मैं पल दो पल क शायर हूँ, 
पल दो पल मेरी जवानी है . . . 

आज जहाँ मैं, आप, हम खड़े हैं, कल वहीं हमसे बेहतर लिखने पढ़ने वाले अदीब होंगे। यह सिलसिला काग़ज़ क़लम का एक अनमोल धरोहर है आपकी, मेरी हम सब की। 

बस याद रह जाते है कुछ पलों के जज़्बे, किताबों के पन्नों में, पर इतिहास गवाह है:

“गुमनाम कोई रह गया दीवान लिख के भी 
दो चार शेर तुमको मशहूर कर गए” 

बस यह दौर की बात है, स्थायी कुछ नहीं। 

“जो बच गए हैं चराग़ उनको बचाए रखो
मैं चाहता हूँ हवा से रिश्ता बनाए रखो” 

आज मेरे इस संग्रह में पुराने कुछ हस्ताक्षर नाम, कुछ शब्द, याद के झरोखे से झाँकते हुए आपसे रू-ब-रू होते हुए सजीव हो उठे हैं। 

मामला दिल का है, दिल की कोई भी बात हो, शीरीं ज़ुबान में नज़्म, दोहा, रुबाई, व ग़ज़ल व् कविता के स्वरूप में सामने आती है। कविता एक तजुर्बा है, एक ख़्वाब है, एक भाव है। जब मानव के अंतर्मन में मनोभावों का तहलका मचता है, मन डाँवाँडोल होता है या हलचल मचाती ख़ुशी की लहरें अपने बाँध को उलाँघती जाती है तब कविता बन जाती है। ऐसी ही अनेक अनमोल अनुभूतियाँ एक रचनाकार की क़लम से शब्दरूप धारण करते हुए दिल की दहलीज़ से उतरकर अवाम की भावना के साथ मिलजुलकर अपनी थाह पा लेती हैं। कविता अन्दर से बाहर की ओर बहने वाला निर्झर झरना है। 

प्रेम प्रकाश ‘पटाख’ का एक शेर याद आता है:

पूछो ग़ज़ल है क्या ये तो इक ऐसा छंद है
फूलों की मुट्ठियों में छुपी एक सुगंध है। 

यह तो लेखक और पाठक के बीच एक रेशम से रिश्ते का एक इन्द्रधनुष है जो सोच शब्द के संगम स्वरूप एक सप्तरंगी कोलाज बनकर आज भी मेरी आँखों में समाया हुआ है। 

इसी एहसास को साथ लिए मेरे प्रकाशित ग़ज़ल संग्रह: ‘चरागे-दिल’ 2007; ‘दिल से दिल तक’ 2008; ‘लौ दर्दे-दिल की’ 2010; ‘सहन-ए-दिल’ 2017 और ‘दरिया-ए-दिल’-2023। और अब ‘दिल से ग़ज़ल तक’ अपने शब्दों की यात्रा करते हुए समय के साथ-साथ एक स्वतंत्र यात्रा तय कर रहा है। अब ‘दिल से ग़ज़ल तक’ आपके हाथों में देते हुए मैं हार्दिक स्नेह श्रद्धा के साथ यह संग्रह फिर से ग़ज़ल के पिंगलाचार्य श्री आर. पी. शर्मा समर्पित करती हूँ, जिनकी आशीष से मैं इस विधा के कुछ पन्ने पलट पाई। यह उस देन का प्रतिफल है जो एक गुरु-शिष्य-के परम्परा को बरक़रार रखने में पहल करता है। 

कर रहे हैं मिल के रौशन दीप इबादतगाह के 
ख़ूब है ‘देवी’ इबादत, उसकी भी और मेरी भी 

गति अपनी लय-ताल में सुस्त क़दमों से चल रही है . . . बढ़ रही है . . . आगे . . . और आगे . . . अपनी नियति के संविधान के अंतर्गत . . . बस . . .! 

अदब के कुछ आदाब भी मुझे इस रस्म को निभाने की माँग करते हैं, उसी दयारे में मैं अयन प्रकाशन के निदेशक श्री संजय जी का तहे दिल से शुक्रिया अता करती हूँ, जिन्होंने वक़्त के दायरे में रहकर इस संग्रह का अक्षरांकन करते हुए इसे आपके हाथों में सौंपा है। 

पाठकों के स्नेह की सदा पात्र रही हूँ। हाँ, उसी आशा एवं विश्वास के साथ आपके मन की बात जानने व् प्रतिक्रिया पाने की ललक में–

आपकी अपनी 
देवी नागरानी
15 फरवरी 2025

<< पीछे : दिल से ग़ज़ल तक अज़, देवी नागरानी क्रमशः

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