दिल से ग़ज़ल तक

 

2122    1212     22
 
तेरे दर पर टिकी हुई है नज़र 
कोई भी दर नज़र नहीं आता
 
मेरे भीतर जो मुझसा बैठा है 
मुझको बाहर नज़र नहीं आता 
 
हैं मकाँ ही मकाँ जहाँ देखूँ 
क्यों कोई घर नज़र नहीं आता 
 
हाथ में सबके एक पत्थर है
काँच का घर नज़र नहीं आता
 
सामने रेत का समंदर है 
साया सर पर नज़र नहीं आता 
 
बिन छुए आर पार हो ज़ाए 
ऐसा ख़ंजर नज़र नहीं आता
 
साफ़गोई से बात कह दे जो 
आईना वो नज़र नहीं आता
 
कहते हैं वो बसा है कण कण में 
क्यों वो ज़ाहिर नज़र नहीं आता
 
दर्द ‘देवी’ दवा का काम करे
ऐसा मंज़र नज़र नहीं आता

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