दिल से ग़ज़ल तक

 

2122    1122    22 
 
शमअ पर वो था जला बेवजह
कर दिया ख़ुद को फ़ना बेवजह
 
मामला तय किया था आपस में 
बात दिल यूँ ना बढ़ा बेवजह
 
थी न कोई भी वजह झुकने की
फिर भी सर क्यों था झुका बेवजह
 
दिल दिया दर्द लिया बदले में
किसके कहने पर किया बेवजह
 
तेरी मर्ज़ी में मेरी मर्ज़ी थी 
फिर उलझता क्यों रहा बेवजह 
 
बेहयाई की कोई बात न थी
पर्दा उसने क्यों किया बेवजह
 
जो तेरे सामने उठा न पाया नज़र
उसको नज़रों से मत गिरा बेवजह
 
बेयक़ीनी पे किया मैंने यक़ीं 
सोचती हूँ क्यों किया बेवजह
 
जो न वाक़िफ़ है रस्मों से नादाँ 
मत सिखा उसको वफ़ा बेवजह 
 
सुन ले उसकी ज़बां से तू बातें
पर तू अपनी ना सुना बेवजह
 
बेवफ़ाई तो न की तुमने कभी 
फिर भी पाई क्यों जफ़ा बेवजह 
 
किसको फ़ुर्सत थी, सुने बात उसकी 
बड़बड़ाता वो रहा बेवजह 
 
थी वजह कुछ भी न ‘देवी’ फिर भी 
मुझसे रूठा वो रहा बेवजह

<< पीछे : 15. तेरे दर पर टिकी हुई है नज़र आगे : 17. ये हमराज़ को उसने बोला ही होगा  >>

लेखक की कृतियाँ

ग़ज़ल
आप-बीती
कविता
साहित्यिक आलेख
कहानी
अनूदित कहानी
पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
अनूदित कविता
पुस्तक चर्चा
बाल साहित्य कविता
विडियो
ऑडियो