ठंडी सड़क (नैनीताल)-11
महेश रौतेला
मैं किसी काम से हल्द्वानी बाज़ार गया था। बस स्टेशन से गुज़र रहा था, नैनीताल की बस पर नज़र पड़ी, सोचा नैनीताल घूम कर आऊँ। बिना उद्देश्य कहीं जाना भी मन को आन्दोलित तो करता है। बस में बैठ गया। बग़ल में दूसरा यात्री था। कुछ देर बाद बस चली। बग़ल का यात्री एक राजनैतिक दल को गाली दे रहा था और दूसरे दल की प्रशंसा कर रहा था। मैंने उसे अपना परिचय तब तक नहीं दिया था। वह छोटा व्यापारी था। काठगोदाम से ऊपर को जब बस गुज़र रही थी तो मुझे लग रहा था जैसे मैं प्रकृति के सुन्दर द्वार में प्रवेश कर रहा हूँ। पहाड़ों की छटा मन में बैठने लगी है। कितनी यादें सुरसुराती निकल रहीं हैं। जिसे भूलना चाहता हूँ, वह सबसे पहले याद आता है। मन की भूमिका कोई नहीं जानता। दोगाँव पर बस रुकती है। वहाँ पर लगभग सभी यात्री चाय पीते हैं या नाश्ता करते हैं। चाय दस रुपये की थी। कभी दस पैसे में चाय आती थी। मन तुलना करना नहीं भूलता। पहाड़ बृहत्तर रूप में सामने थे। बस सर्पाकार सड़क पर दौड़े जा रही थी।
मन में विचार आ रहे थे:
“शुभ-शुभ्र उज्ज्वल गिरि प्रदेश में
गंगा हमारी जन्मती,
जय बद्री, जय केदार, जय जागेश्वर धाम की,
शिखर हिमाला हिम से ढके
जय हो देव, देवभूमि की।
उठे शिखर, हरिद्वार पावन
जवानों का प्रताप अक्षुण्ण,
खिला बुरुश, पके काफल
क्षण क्षण कहा इसे विलक्षण।
माँ सती के नयन देखते
जय भूमिया धार की,
जय विगत, जय आगत, जय भारतवर्ष की,
जय धूप में, जय हिम में
जय इस मानस खण्ड की।
जय हास में, जय प्रकाश में
जय रक्त की धार में।”
बग़ल में बैठा यात्री धीरे-धीरे मेरा परिचय लेने लगा। फिर चुप हो गया। नैनीताल में उतरा तो बिना कहे चला गया। मुझे लगा मुझे अपना परिचय उसे नहीं बताना चाहिए था। परिचय ने हमारे बीच दूरी पैदा कर दी थी।
तल्लीताल, नैनीताल, डाकघर पर बैठता हूँ। ठंडी झील पर पानी लहरदार लग रहा था। मेरे अतीत को छुपाये। मानो कह रहा हो, “मधुर छवि के साथ गये थे और अपनी वरिष्ठता के साथ मुझे निहारने आ गये हो।” मैं सोच रहा हूँ, “मैं तो वही हूँ लेकिन और सब बदल गये हैं।” तीनों पिक्चर हॉल बंद हो गये हैं। रीगल हॉल, मल्लीताल के सामने टैक्सी स्टैंड बन गया है। देखकर बहुत बुरा लगा। ऐसा लगा जैसे परिवर्तन आग है जिसे दूर से सेंकना चाहिए।
“फोन में बात होती है
कैसे हो
ठंड कितनी है,
खाना खा लिया
बरतन मल लिये
तबियत कैसी है
बच्चे स्कूल गये?”
“आज ठंड है
नहाया नहीं है।”
“गेहूँ बो दिये
बर्षा हुई या नहीं
बर्फ़ गिरी या नहीं
गूल बनी या नहीं
प्रधान कौन है?”
“पंचायत बहुत होती है
काम कम होता है।”
“जीवन की
यही तो कविता है
जो ठहरती नहीं
नदी सी बनी रहती है।”
“ये कोई नहीं पूछता
प्यार किया या नहीं?
मानो, वह सूरज की तरह
रोज़ आ जायेगा,
नक्षत्रों की भाँति टिमटिमायेगा,
धूप की तरह
चिलमिलाता रहेगा।”
ठंडी सड़क की ओर मुड़ता हूँ। मुझमें वैराग्य सा आने लगा है। मन कहता है ऐसा कैसे हो सकता है? एक लेखक दूसरे लेखक के बारे में उसकी मृत्यु के बीस साल बाद ऐसा कैसे लिख सकता है! लेकिन लिखा है।
“ठंडी सड़क पर साथ चलते-चलते वे मेरे पैरों में गिर गये। और अश्रुपूरित हो गिड़गिड़ाने लगे . . .।”
मैंने १९८० के आसपास किसी पत्रिका में पढ़ा था उन्होंने पचास हज़ार रुपये का पुरस्कार लेने से मना कर दिया था। दोनों लेखकों की उम्र में लगभग सोलह साल का अन्तर है। ठंडी सड़क पर चलते मुझे यह बात कुछ अटपटी लग रही थी। लग रहा था विपुल साहित्य रचने वाले को धराशायी कर दिया है। फिर मन कहता है, यह वही सड़क है जब पढ़ने का मन नहीं होता था तो अपने सहपाठी से मिलने चला जाता था। इस सड़क की नीरवता बहुत बार आधे से ही लौटा देती थी। उस दिन नक्षत्र कुछ वक्र होते थे।
इतने में घर की घंटी बजी और हल्द्वानी से बाल मिठाई और भट (दाल) देने एक मित्र आ गये। सोचा इस स्नेह को क्या कहूँ!
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