ठंडी सड़क (नैनीताल)-05
महेश रौतेला
बूढ़े ने कोट की जेब से सिगरेट का पैकेट निकाला और सिगरेट जलायी। और धीरे से बुदबुदाया, “आज वह नहीं आयी। हो सकता है स्वास्थ्य ठीक न हो।” सिगरेट का एक लम्बा कश लिया और धुँए को स्वच्छ वातावरण में उड़ेल दिया।
मैंने उससे कहा, “मुझे बीड़ी, सिगरेट का धुआँ अच्छा नहीं लगता है। इस धुँए से एलर्जी है। मैं चलता हूँ।”
उसने कहा, “ठीक है, ठीक है। मैं सिगरेट बुझा देता हूँ। तुम बैठो।”
मैंने उससे कहा, “इस बार गाँव गया था। बहुत अच्छा लगा। जंगलों में घूमा। बचपन के जिन विशाल पत्थरों में खेला करते थे, उनके साथ फोटो खिंचायी। पड़ोस की बूढ़ी भाभी मिलने आयी। उनके साथ चाय पी। गाँव की बातें चलीं। मैंने कहा गाँव के विशाल सिंह चाचा तो लगभग सौ साल जिये होंगे। उनकी माँ भी लम्बा जी थी, लगभग सौ साल। उन्होंने कहा ‘हाँ’ लेकिन बूढ़ा बड़ा कंजूस था। जब बेटियाँ ससुराल को विदा होती थीं तो उस पार अपने दूसरे घर में चला जाता था। इसलिए कि कहीं बेटियों के हाथ में कुछ रुपये-पैसे रखने न पड़ें, परंपरा के अनुसार। मैंने कहा अब ज़माना बहुत बदल गया है ना! वे बोलीं ‘हाँ’ पहले अधिक आत्मीयता थी। लोग बोलते थे ओ दीदी, ओ भुलि (जो अपने से छोटा हो), ओ ज्यू (सास), ओ भोजि (भाभी) आदि कैसे हो। अब तो कान सुनने को तरस जाते हैं। सब फोन में व्यस्त रहते हैं।”
फिर बूढ़े से कहा, “कुछ और विस्तार से अपनी गाँव की यात्रा के बारे में बताता हूँ, सुनिये।” बूढ़ा राज़ी हो गया।
“बहुत साफ़ दिख रहा मेरा पहाड़
सूरज के साथ
मनुष्य के भावों के टटोलता।”
“इन्हीं भावों के साथ गुजरात से यात्रा आरम्भ की इस बार, २०२३ में। सात साल बाद रेलगाड़ी में बैठा था। दिल्ली में उतरा और चम्पावत के एक ड्राइवर ने नोयडा अतिथि गृह में पहुँचा दिया। उसने बताया वह पहले रैनबैक्सी में काम करता था। बोला शुद्ध हिन्दी में लिखा है ‘अतिथि गृह।’ यहाँ तो बड़े लोग ही आ पाते हैं। मैंने कहा ऐसा नहीं है। वह अतिथि गृह और उससे लगी कालोनी, बाग़ बग़ीचे, खेल मैदानों आदि के रखरखाव और सौन्दर्य से बहुत प्रभावित लग रहा था और साथ में गेट पर चार सुरक्षाकर्मियों के कारण। दिल्ली विवाह उत्सव में चार व्यक्ति राजनैतिक चर्चा कर रहे थे। एक व्यक्ति तथ्यों के विपरीत काल्पनिक धारणा से बहस कर रहा था और तीन व्यक्ति उसकी बातें मात्र सुन रहे थे।
“चौखुटिया में कार से उतरा। उत्तराखंड की प्रस्तावित राजधानी गैरसैंण यहाँ से निकट ही है। मैं सुबह ९ बजे पहुँच गया था क्योंकि रात को रानीखेत में ही रुक गया था। वहीं से मिठाई और बालमिठाई ख़रीदी परम्परा के अनुसार। पहले चौखुटिया से पैदल ही गाँव जाया करते थे। लगभग दो साल पहले प्रधानमंत्री ग्रामीण सड़क योजना के अन्तर्गत गाँव तक सड़क पहुँची थी। गाँव में अब नये घर पत्थरों की जगह ईंटों से बनने लगे हैं। और छत आरसीसी (कंक्रीट सीमेंट) की। पहले दिन अड़ोस-पड़ोस में मिलने गया। किसी ने चाय पिलायी और किसी ने दही खिलाया, उपलब्धता के अनुसार। एक परिवार के घर पर मधुमक्खियों के पाँच छत्ते थे। वे घर पर नहीं मिले। बाद में घर पर मिलने आये। एक-दो लोगों ने मुझे मेरा बचपन याद दिलाया। घरों के पास के खेत ही आबाद हैं और दूर के बंजर हो चुके हैं। उनमें जंगली पौधे और घास ने अपना स्थान बना लिया है। घर पर दो दिन दही भी एक घर से आया।
“पहले दिन विद्यालय देखने गये। विद्यालय कक्षा १० तक है लेकिन बच्चे केवल १२ हैं। अध्यापक केवल चार हैं।
“गाँव के भीतर मैं एक और गाँव देखता हूँ। गाँव के हर घर के पास अब शौचालय, स्नानघर है। हर घर के पास नल से पानी आता है। हम बचपन में लगभग एक किलोमीटर दूर से पानी लाते थे, नौले से। प्राथमिक विद्यालय में तब लगभग ५० बच्चे होते थे, आज ११ बच्चे हैं। दूसरे दिन गजरैघाट (स्थान) गये। तीन गधेरे (नदियाँ) वहाँ हैं और उनका मिलन स्थल ‘संगम।’ पानी बहुत ठंडा था लेकिन स्वच्छ उसके नीचे के कंकड़-पत्थरों को साथ-साफ़ देख सकते हैं। हमें पुरानी कविता याद आयी (नेपाली जी की लिखी): ‘यह लघु सरिता का बहता जल, कितना शीतल, कितना निर्मल’, जिसे हमने बाँचा और नदी को सुनाया जितना स्मृति पटल पर था, शायद कक्षा ३ में पढ़ी थी या बाद में। २०१७ में बादल फटने से भूस्खलन में दो गधेरों की रूपरेखा बदल गयी है वहाँ पर। उस दिन यहाँ ज़मीन हिली थी, कहते हैं। उस स्थान पर दूर तक सभी ‘र’ (तालाबनुमा जल) सपाट हो गये हैं। बड़े-बड़े पत्थर इधर-उधर देखे जा सकते हैं। गाँव का एक किनारा भी बहाव में बह गया था। एक गधेरे का पुल बह गया था जहाँ पर अब नया पुल बन गया है। कुछ खेत बड़े-बड़े पत्थरों से पट गये हैं। घट अब अतीत की बात हो चुके हैं। जहाँ हम पहले उषाकाल से पहले पहुँच जाया करते थे।
“शिवरात्रि के दिन मैं हल्द्वानी लौट रहा था। मन्दिर जाने वालों का उत्साह देखते बनता था। कैंची मन्दिर पर बहुत भीड़ थी। कहा जाता है कभी एप्पल और फ़ेसबुक के संस्थापक भी यहाँ आये थे। आधा किलोमीटर तक कारों की क़तार लगी थी।
“रुद्रपुर पहुँचने पर घर से फोन आया कि पिर दा (श्री प्रेमसिंह) भेंट करने आये हैं। उनकी आयु ९२ साल है। एक बाल्टी दही लाये हैं। बोल रहे हैं घर जाकर भैंस दुहना है अभी। भैंसों को घास देनी है। भाई बोल रहा था उनकी बाल्टी को माल्टा से भर दिया था। मुझे बहुत अफ़सोस हुआ कि उनसे भेंट नहीं हो सकी। दो बार कार्यक्रम भी बनाया। सोचता हूँ शीघ्र ही उनसे भेंट कर पाऊँगा।
“गाँव से लौटते समय मन में चल रहा था:
नदी भूखी है जल के लिये
पहाड़ भूखे हैं वृक्षों के लिये,
खेत भूखे हैं अन्न के लिये
मनुष्य भूखा है प्यार के लिये,
और मैं गाँव के भीतर एक और गाँव देखता हूँ।”
सुनने के बाद बूढ़े ने कहा, “आज समय अच्छा कट गया।”
1 टिप्पणियाँ
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गाँव की कच्ची मिट्टी की सोंधी महक सी अनुभूति हुई। सुन्दर।
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