खिसक जाते हैं गाँव-शहर

15-06-2022

खिसक जाते हैं गाँव-शहर

महेश रौतेला (अंक: 207, जून द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

खिसक जाते हैं
गाँव-शहर धीरे-धीरे
खिसक जाती हैं यादें, 
आग जलती रहती है मन में
कि हमने जिया तो क्या जिया! 
 
जीते-मरते संसार के बीच
हमने खोया तो क्या खोया, 
पाया तो क्या पाया! 
लगा फिर खिसक गया समय
धीरे-धीरे अस्ताचल में सूरज की तरह। 
 
ऐसा नहीं कि नहीं मिली हैं साँसें
ख़ूब ली हैं साँसें
अर्थपूर्ण लगीं बारम्बार, 
फिर खिसक गयी बातें
इधर से उधर हो गयीं सभ्यताएँ। 

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