तुम धरा से अलग, कभी हुए ही नहीं

15-08-2025

तुम धरा से अलग, कभी हुए ही नहीं

महेश रौतेला (अंक: 282, अगस्त प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

कुछ छने हुए क्षणों में
हम विचरते रहे, 
तुम्हारी सूरत को
अहर्निश ढूँढ़ते रहे। 
तुम धरा से अलग 
कभी हुए ही नहीं, 
हमारे हाथों की लकीरों से
पृथक रहे ही नहीं। 
हम ढूँढ़ने लगे
ऊपर आकाश की तरफ़, 
तुम पृथ्वी पर आकर
रहने लगे। 
तुम अनेकों रूप में
आते रहे, 
हम स्थायी रूप में
भजते रहे। 
हम फूलों की माला
बनाते रहे, 
तुम पुष्प के अन्दर
मुस्कुराते रहे। 
हम ऊँचे स्वर में
स्वयं जताते रहे, 
तुम मौन को
सदा अपनाते रहे। 
हम घड़ियों को गिन
मुहूर्त निकालते रहे, 
तुम शाश्वत उपस्थिति
जताते रहे। 

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