ठंडी सड़क (नैनीताल)-02
महेश रौतेला
ठंडी सड़क पर धीरे-धीरे उसके साथ चल रहा था। मैंने कहा अब बुढ़ापा आ गया है। उसने कहा मन कभी बूढ़ा नहीं होता है। तभी उसने पुरानी फ़िल्म का गीत बजा दिया:
“ये कौन आया, रोशन हो गई
महफ़िल किस के नाम से
मेरे घर में जैसे सूरज निकला है शाम से . . .”
मैं गीत सुन रहा था। मन ने एक उड़ान भरी। ठंडी सड़क से एस आर के पी लघंम छात्रावासों को जाने वाली पगडण्डी अब पक्की बन चुकी है। तब ऊबड़-खाबड़ हुआ करती थी।
कुछ रास्ते ऊबड़-खाबड़ ही अच्छे होते हैं, ऐसा मन में आया। क्योंकि उन्हें पक्का करने का सपना ज़िन्दा रहता है। वह तल्लीताल को चली गयी और मैं वहीं पर बैठ गया, एक छोटे से पत्थर में। काग़ज़ निकाला और लिखने लगा:
मैं तुझे नदी कहूँ
तू मुझे समुद्र कह,
तू सदा मधुर रहे
मैं खारा ही भला।
तू सदा धरा रहे
मैं उड़ता बादल रहूँ,
तू सदा हरी रहे
मैं रिमझिम बरसा करूँ।
मैं तुझे वृक्ष कहूँ
तू मुझे जंगल बना,
तू सदा खिला करे
मैं सदा उगा करूँ।
तू प्रकृति का प्यार बने
मैं प्रकृति से प्यार करूँ,
जहाँ कृष्ण कहते रहें
“मैं पृथ्वी की सुगन्ध हूँ।”
वहाँ से उठा देखा पास बेंच पर एक बूढ़ा और बुढ़िया बैठे हुए थे। मैं बेंच के एक किनारे बैठ गया। उनकी बातें सुनकर मन में गुदगुदी हो रही थी। बूढ़ा कह रहा था, “मैं तुम्हें देखने मल्लीताल आता था। जब तुम दिख भर जाती थी तो मन को बड़ा संतोष होता था। कहा गया है ‘संतोषम परमम सुखम।’ तीन साल मल्लीताल से तल्लीताल, तल्लीताल से मल्लीताल, नगरपालिका पुस्तकालय, ठंडी सड़क, सिनेमा हाल, बुक डिपो, रिक्शा स्टैंड आदि ही ज़िन्दगी थी। इस बीच हवा के ठंडे झोंकों में तल्लीनता। मैंने जब तुम्हें पहली बार देखा तब धूप खिली थी।”
बुढ़िया ने कहा, “मुझे सब पता है। मुझे भी तुम्हें देखना अच्छा लगता था। तुम्हारे कोट का रंग मुझे आज भी याद है। उस कोट की जेब में अवश्य कोई पत्र रखते होगे ना जो कभी तुमने मुझे दिया नहीं। फिर मैं लखनऊ चली गयी।”
बूढ़ा बोला, “हाँ, तुम हल्के पीले रंग के कपड़े पहनती थी। कृष्ण भगवान का रंग। तुम्हारी आँखों का रंग भी मुझे अच्छा लगता था।”
बुढ़िया बोली, “तुम एक क़िस्सा सुनाया करते थे। एकबार भयंकर सूखा पड़ा। चारों ओर त्राहि-त्राहि मची थी। तब स्वर्ग से एक गाय आयी। और वह सभी के घर जाती थी। लोग उसे दुहते थे और दूध से अपनी भूख मिटाते थे। लोग उस गाय की पूजा करने लगे। जब लोग उसकी पूजा करने लगे तो वह अन्तर्धान हो गयी।”
बूढ़ा बोला, “कैपिटल सनेमा हाल में मैंने एक बार तुम्हें देखा था। तुम एक सीट छोड़कर बैठी थी। तुमने काला सूट पहना था। तुम पर बहुत अच्छी लग रहा था। फ़िल्म का नाम याद नहीं है। तुम्हें है?”
“नहीं मुझे भी नहीं है। पर गाने बहुत अच्छे थे उसके। मैंने तुम्हें देखा था। तुम कोट पहने थे। वह कोट शायद तुम्हें शगुनी लगता था। मैं सोच रही थी तुम कुछ बात करोगे। लेकिन तुम कुछ नहीं बोले। मैं तब उदासी से घिर गयी थी। उन दिनों फ़िल्म देखने में बहुत रस आता था। अब वह रस नहीं रहा।”
“हाँ, वह कोट था बहुत शगुनी। जब भी उसे पहनता था, तुम्हारे दर्शन अवश्य हो जाया करते थे। नैना देवी के मन्दिर में बहुत मन्नतें माँगी थीं। पर सब अधूरी रहीं।”
तभी बूढ़े के सिर पर एक चींटी दिखायी दी। बुढ़िया ने अपने हाथ से उसे पकड़ कर नीचे फेंक दिया।
दोनों कुछ देर एक-दूसरे को देखते रहे। फिर बूढ़ा मल्लीताल की ओर चला गया और बुढ़िया तल्लीताल की तरफ़।
बूढ़े-बुढ़िया की छवियाँ बहुत देर तक मुझमें समायी रहीं। मैं सोच रहा था, शायद कल भी ये यहाँ आयेंगे। ये कुछ कहेंगे और मैं सुनूँगा। और फिर मन हुआ कुछ लिखूँ:
“भरे-भरे गगन में
भरा एक विश्वास है,
तू कहे, मैं सुनूँ
ऐसा एक प्रभात है।
विराट उस रूप को
एक ही प्रणाम है,
तू कहे, मैं सुनूँ
तभी तू अराध्य है।
संग भी साथ भी
तू ही तो विलीन है,
आग से आवाज़ तक
तेरा ही संसार है।
तू अद्भुत लालसा
तू ही विशाल ललाट है,
भरे-भरे गगन में
भरा हुआ सुनाम है।” . . .
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