हिमालय

महेश रौतेला (अंक: 256, जुलाई प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

तुझे देखता हूँ, देखता रहूँ
तेरी सुनहरी काया को बटता रहूँ, 
जैसा देखा था, वैसा ही है
तेरी अद्भुत काया से मन भरता रहूँ। 
 
स्वर्ग को धरती पर आता देखता हूँ
शिखर जैसा था, वैसा ही पाता हूँ, 
दृष्टि पर यह अमर बेल लाता हूँ
युगों की मनोहारी छाप यहाँ देखता हूँ। 
 
नदियाँ बनाते तुझे पाता हूँ
तीर्थों को नहलाते सोचता हूँ, 
सौन्दर्य की छटा बिखरते पाता हूँ
जैसा था वैसा रहे, यही मनन करता हूँ। 
 
अपने घर की हवा में तुझे घुला पाता हूँ
शीतलता तेरी पाने, टहला करता हूँ, 
तेरी शान्त आत्मा में डूबा रहता हूँ
तू जैसा था वैसा रहे, यही मनन करता हूँ। 

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