झूठ बहुत बिकता है

01-06-2024

झूठ बहुत बिकता है

महेश रौतेला (अंक: 254, जून प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

झूठ बहुत बिकता है
नदी-नालों सा बहता है, 
वृक्षों सा उगता है
पग-पग पर मिलता है। 
रावण सा रूप बदलता है
कंकड़-पत्थर सा चुभता है, 
जिसके हाथों में होता है
उसे भी निगलता है। 
दूर नहीं वह निकट ही है
हम पर ही खिलता है, 
बाज़ार बड़ा, रूप सफ़ेद
झूठ बहुत बिकता है। 

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