बुआ
महेश रौतेला
अल्मोड़ा ज़िले का एक पर्वतीय गाँव है। तीस परिवार वहाँ रहते हैं। चारों ओर से पहाड़ों से घिरा। उसके आसपास चार गधेरे हैं। पहाड़ी पर बसा गाँव स्वयं से बातें करता है। बाज़ार यहाँ से सोलह किलोमीटर दूर है। खाने-पीने की मूल आवश्कतायें गाँव स्वयं ही पूरी करता है। कुछ वस्तुएँ जैसे नमक, गुड़, कपड़ा आदि के लिए बाज़ार जाते हैं।
बरसात में नदियों की बाढ़, आवाजाही कम कर देती है। जाड़ों में गाँव में हिमपात होता है। बर्फ़ की चादर में ढका गाँव और पहाड़ियाँ मनमोहक हो जाते हैं। पगडण्डियाँ बनती-बिगड़ती मन के संगीत को झकझोरती हैं। सब मनमोहक लगता है। प्राथमिक विद्यालय है। केवल लड़के स्कूल जाते हैं, लड़कियों को पढ़ाने की कोई परंपरा नहीं है। खेती करना और पशुपालन मुख्य व्यवसाय है। घसियारियाँ और घसियारे घास काटने जंगलों में जाते हैं। जंगल जब सरकार की ओर से ठेकेदारी प्रथा में कटते हैं तो कुछ लोगों को कटान-चिरान का काम मिल जाता है।
गाँव की अपनी मान्यताएँ हैं। पिता जी कहते हैं उनके बचपन में उन्होंने एक अद्भुत घटना देखी थी, मेरे बूबू (दादा) के साथ। हमारे घर से तीन सौ मीटर की दूरी पर एक लड़की बाल फैलाये रो रही थी। वह गाँव की लड़की तुलसी जैसी लग रही थी। बूबू ने पुकारा, “तुलसी, ओ तुलसी तू क्यों रो रही है?” वह कुछ नहीं बोली और रोते-रोते गाँव के चारों ओर रूप बदलते जाती रही, कभी कैसी दिखती, कभी कैसी। और फिर नीचे नदी की ओर चलते-चलते खो गयी, अन्तर्ध्यान हो गयी। पूरे गाँव ने इस घटना को देखा। फिर अनुमान लगाया कि कुलदेवी “भगवती” नाराज़ है, अतः धूमधाम से पूजा का आयोजन किया गया।
शादियाँ कम उम्र में कर दी जाती हैं। बुआ की शादी कत्यूर (गरुड़) में कर दी गयी है। लगभग बारह साल उनकी उम्र तब रही होगी। वह अपने मैत (मायका) को असीम प्यार करती है। उसके कण-कण में जैसे उसके प्राण बसे हों।
बुआ का ससुराल लगभग बीस किलोमीटर दूर है। गाँव से एक किलोमीटर चढ़ाई है, पर्वत शिखर तक। चढ़ाई चढ़ते समय अनेक स्थानों से गाँव और गाँव के घर दिखते हैं। शिखर के बाद उतार आता है। दस किलोमीटर का जंगली रास्ता है। शिखर के बाद जो जंगल आता वहाँ पशुपालन के लिये कत्यूर के गाँव वाले साल में एक बार चार माह के लिए आते हैं। वहाँ सबने रहने के लिए खरक बना रखे हैं। बुआ शादी के बाद घास काटने यहाँ आती है। और सब साथियों से कहती कि शिखर तक चलते हैं। शिखर पर आकर वहाँ बैठ कर अपने मैके को एकटक देखती रहती है।
उसके मन में समूचा बचपन घुमड़ने लगता है। माँ, पिता, भाई, बहिन, चाचा, चाची, गाँववाले, खेत खलिहान, घराट, गधेरे आदि साकार होने लगते हैं। जब भी वह धुर (अस्थायी पशुपालन स्थान) आती है शिखर पर अवश्य आती है। अपने मैके की संवेदनाओं और अनुभूतियों को समेटने। यह सिलसिला साल दर साल चलता रहता है।
काम ससुराल में अथाह है। जीने का सम्पूर्ण संघर्ष। खेत में, खलिहान में, पशुओं की देख-रेख, लकड़ियाँ लाना, घास काटना, पानी भरना आदि। सुबह चार बजे उठ जाते हैं और रात दस बजे तक काम में जुटे रहते हैं। श्रम की रेखाएँ चेहरे पर साफ़ दिखती हैं। उसने चार पुत्रों को जन्म दिया।
जब सत्तर साल की हो गयी है तो मैके आयी है। सभी जगहों को ग़ौर से देखती है। नयी पीढ़ी का उदय हो गया है लेकिन वह अतीत में झाँकती पीछे मुड़ती हिरनी की तरह, अपने मैके को देखती है। कुछ पुराना दिखता है जैसे घर, पेड़, खेत, खलिहान, मिट्टी, धारे, नौले आदि। कुछ उसकी तरह बुज़ुर्ग हो गया है, कुछ नया आ गया है।
मैं उसे छोड़ने उसके घर के लिए तैयार होता हूँ। उनकी आँखें आँसुओं से भर आयी हैं। सत्तर के दशक की बात है। पति उनके बहुत पहले गुज़र चुके हैं। गाँव की गूल का पानी ढलान में मधुर आवाज़ करता बह रहा है। बुआ उसके पानी को बीच-बीच में छूती है और गीले हाथ को अपने सिर पर घुमा लेती है। इसी को तो ममता कहते हैं। शिखर तक उसने दस बार, दस अलग-अलग जगहों पर मुझसे कहा, “भुलू, थोड़ा देर यहाँ पर बैठते हैं।” और वहाँ बैठ कर मैके को देखती रहती है। मैं उनकी डबडबाती आँखों को चुपके से देखता हूँ। मैं कहता हूँ, “दीदी, चलें नहीं तो देर हो जायेगी।” वह कहती है, “थोड़ी देर और बैठते हैं।” उसकी संवेदनाओं और अनुभूतियों को समझने में असमर्थ हूँ।
एक बार मेरे बड़े भाई साहब और मैं खुमानी लेकर उसके घर गये थे। तभी पहली बार हम कौसानी गये थे। उसके घर से छह किलोमीटर दूर है। चढ़ाई अच्छी ख़ासी है। हम सुबह निकले थे। कौसानी में सड़क के किनारे हिसालु पका था। हम हिसालु खाने में जुट गये। इतने में भाई साहब कहते हैं, “अरे, तेरी कक्षा में पढ़ने वाली लड़की आ रही है।” मैं यह सुनते ही हिसालु की झाड़ी से तेज़ी से निकला। इस प्रयास में दो काँटे भी चुभ गये। लेकिन लड़की कहीं नहीं थी। भाई साहब हँसने लगे। मैंने उन्हें पहले बता रखा था कि कौसानी की एक लड़की हमारे साथ पढ़ती है। उन्होंने इसी बात से मुझे घेरा।
कौसानी का नयनाभिराम दृश्य। हिमालय के शिखर नीचे गरुड़ घाटी। शाम को बुआ के घर आ गये थे। बुआ की बहुएँ उसका मज़ाक़ उड़ाती हैं। वे चार हैं और वह अकेली। वह डाँटती है तो उसका कोई असर उन पर नहीं होता है क्योंकि बुआ अब बुज़ुर्ग हो चुकी है। बहुएँ कहती हैं, “इस उम्र में भी अपने मैत की इतनी ममता है! हमें तो नहीं है।”
मैंने कहा रामायण में कहा है, “जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। अर्थात् माँ और जन्म भूमि का स्थान स्वर्ग से श्रेष्ठ और महान है।” फिर मुझे अपने गाँव की दूसरी महिला की बातें याद आ रही थी। उसकी शादी चौखुटिया के पास रामगंगा के किनारे बसे गाँव में हुई है। वह कहती है, “मैत तो मेरा है लेकिन मैं तो पत्थर पलट कर आ गयी हूँ।”
बुआ के बड़े बेटे की मृत्यु अधिक शराब पीने के कारण हो गयी थी। शराब का एक क़िस्सा भी वहाँ सुनने में आ रहा है। लड़की वकील है। उसकी शादी दिल्ली में हुई है। उसका ससुर शराबी है। बहू शराब पीने को मना करती है। एक दिन उसने मना किया तो ससुर को ग़ुस्सा आ गया और उसने उसके मुँह में ज़ोर से मुक्का मार दिया और उसके सामने के दो दाँत टूट गये। लड़की ने किसी को नहीं बताया सिवाय अपने एक दोस्त के। औरों को बोली गिर पड़ी थी। अपने दोस्त को भी बोली मेरी माँ को मत बताना।
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