परी और जादुई फूल

15-04-2019

परी और जादुई फूल

महेश रौतेला

कड़ाके की ठंड है। नैनीताल की ठंडी सड़क पर धीरे-धीरे चल रहा हूँ। सड़क के किनारे बर्फ़ अभी भी जमी है। इस सड़क पर बहुत बार अकेले और कुछ बार साथियों के साथ आना-जाना हुआ था। इस पर  बोलता हूँ, "वो भी क्या दिन थे?" 

रात का समय है। लगभग ग्यारह बजे हैं। यह कहानी वैसी नहीं है जैसे बड़े भाई साहब रूसी लेखक टॉलस्टाय की एक कहानी बचपन में सुनाते थे। सौतेली लड़की और उसकी सौतेली माँ की। कैसे 12 महीने एक-एक कर बदल जाते हैं उस लड़की की सहायता के लिये। अब हल्की सी उस कहानी की याद है। उस सफ़ेद रात में आगे मोड़ पर एक परी खड़ी है। धीरे-धीरे उसके पास पहुँचता हूँ। वह मेरे बायें हाथ को छूती है और उसके छूते ही मेरे सफ़ेद बाल काले हो जाते हैं। और मैं बोल उठता हूँ, "ओह, वे भी क्या दिन थे, जब सब बाल काले हुआ करते थे?" देखते ही देखते चारों ओर एक मायावी दृश्य बन गया है। झील में अनगिनत परियाँ उतर गयी हैं। कुछ नहा रही हैं। और कुछ नावों में बैठी हैं। एक परी उदास किनारे पर बैठी है क्योंकि उसे एक दिन बाद मनुष्य बन जाना है। उसकी सब चमत्कारी शक्तियाँ समाप्त हो जानी हैं। उसके आँसुओं से झील भरती जा रही है। झील में झाँकता हूँ तो देखता हूँ कि बड़ी मछली छोटी मछली के पीछे दौड़ रही है। सामने मालरोड पर लोग रुपयों के लिये लड़ रहे हैं। इतने में परी मेरा दायाँ हाथ छूती है, और मेरे सारे बाल फिर सफेद हो जाते हैं। चढ़ाई चढ़ता महाविद्यालय के पुस्तकालय में जाता हूँ। पुस्तकालय में बहुत कम विद्यार्थी हैं। मैं वहाँ अपनी पुस्तकें खोजता हूँ। जैसे ही बैठता हूँ एक किताब वह अनाम परी सामने रख देती है। वह कहाँ से आयी कुछ पता नहीं चला। परी को छूना चाहता हूँ, लेकिन वह तभी ग़ायब हो जाती है। मैं किताब पलटकर पढ़ता हूँ-

"उसने झुँझलाहट में कहा-
तुम रद्दी ख़रीदते हो
रद्दी पढ़ते हो
रद्दी सुनते हो,
तभी रद्दी लेने वाला वहाँ आया
उसने सब शब्दों को तराजू पर रखा
उठे पलड़े पर कुछ और शब्द डाले
वज़न जब बराबर हो गया
शब्दों को बोरे में समेट दिया। 
कुछ क्षण मुझे
सारा आकाश नहीं सुहाया,
धरती भी नहीं सुहायी,
दूसरे ही क्षण
मैं उनको महसूस करने लगा
सौन्दर्य अन्दर आ, बुदबुदाने लगा
अनुभूतियाँ छलक, अटकने लगीं।
फिर एक रद्दी काग़ज़ पर लिखने लगा,
अक्षर और नये अक्षर।"

इतना पढ़ने के बाद इधर-उधर नज़र दौड़ायी, कोई परिचित नज़र नहीं आया। शान्त बैठा रहा। कुछ देर बाद मैंने सामने शीशे में देखा और मन ही मन कहा, "सफ़ेद बालों का भी अपना महत्व होता है। और उम्र के साथ यादें गुम होने लगती हैं!" पुस्तकालय से बाहर निकलता हूँ। सामने एक बुढ़िया दिखती है। उसके पास जाता हूँ। वह मुझे गले लगाती है और मैं और बूढ़ा हो जाता हूँ। वह कहती है उसने सतयुग में राजा हरिश्चंद्र को देखा है। वह आगे बताती है-

"राजा हरिश्चन्द्र इतिहास के चमकते सितारे हैं। ऋषि विश्वामित्र ने उनकी परीक्षा लेने के लिये उनका राजपाट छीन लिया था। राजपाट भी उन्होंने सपने में विश्वामित्र को दिया था। विश्वामित्र सपने में आते हैं, राज्य माँगते हैं। दूसरे दिन पहुँच जाते हैं दरबार में। बोलते हैं, "राजन, आप अपना राज्य दे दीजिये।" 

हरिश्चन्द्र बोले, "आपको तो राज्य दे चुका हूँ, सपने में।" 

कैसे राजा थे तब! राज्य चले जाने के बाद, दक्षिणा के लिये उन्हें पूरे परिवार को बेचना पड़ा। उन्होंने श्मशान में काम किया, जीविका के लिये। पत्नी तारा को किसी घर में। वे श्मशान पर दाह संस्कार का कर वसूलते थे। पुत्र रोहताश की साँप के काटने से मृत्यु हो जाती है तो उसके शव को लेकर वह उसी श्मशान में जाती है जहाँ हरिश्चन्द्र कर वसूलते हैं। वे तारा से श्मशान का कर देने को कहते हैं लेकिन उसके पास देने को कुछ भी नहीं होता है, अत: वह अपनी धोती फाड़ने लगती है, कर के रूप में देने के लिये। तभी आकाशवाणी होती है और विश्वामित्र भी प्रकट हो जाते हैं। विष्णु भगवान रोहताश को जीवित कर देते हैं और विश्वामित्र हरिश्चंद्र को राजपाट लौटा देते हैं। 

"आगे त्रेतायुग में राम को वन में देखा है। 

"द्वापर में कृष्ण को देखा है। कलियुग में आते-आते बूढ़ी हो गयी हूँ।"

मैंने कहा, ”तुम मेनका या उर्वशी की तरह तो नहीं हो?” 

वह चुप रही। 

उसके हाथ में एक फूल था। उसने उस फूल को मुझे थमाया और बोली, "इस फूल को तुम जिसे दोगे वह बुढ़ापे से मुक्त हो जायेगा।" 

मैंने फूल पकड़ा और सोचने लगा किसे इस फूल को दूँ। सोचते-सोचते में मल्लीताल पहुँच गया। मेरे मन में संशय जगा। सनेमाहाल के पास एक बूढ़ा बैठा था। मैंने फूल की चमत्कारी शक्ति देखनी चाही और उसे वह फूल देने लगा। लेकिन उसने वह फूल लेने से मना कर दिया। उसने कहा, उसे भूख लगी है यदि देना ही है तो दस रुपये दे दीजिए, कुछ खा पी लूँगा। फूल से क्या करूँगा? 

कंसल बुक डिपो में एक बुढ़िया दिख रही थी। वह किताब ख़रीद रही थी। मैंने उसे फूल दिया और उसने वह जादुई फूल पकड़ लिया और वह जवान हो गयी। सभी लोग यह चमत्कार देखकर चकित हो रहे थे। किसी को अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था। वह बी. एसी. में हमारे साथ पढ़ने वाली लड़की थी। मैंने झट से फूल को अपने हाथ में लिया और तेज़ी से दुकान से बाहर निकल गया। मैं चौराहे पर रुका और वहाँ पर खड़े होकर रिक्शेवालों को देखने लगा। कुछ बूढ़े रिक्शेवाले भी थे। मैं बूढ़े रिक्शे वाले को अपने पास बुलाता और उसे फूल पकड़ता। वह झट से जवान हो जाता। जब दस बूढ़े रिक्शे वाले जवान हो चुके थे तो वह बूढ़ी परी मेरे पास आयी और फूल को वापिस माँगने लगी। बोली, "इस फूल की चमत्कारिक शक्ति समाप्त हो चुकी है। मैं भविष्य में फिर तुम्हें दूसरा जादुई फूल दूँगी।" 

मैं उदास हो गया और बेमन से फूल उसे लौटा दिया। वह फूल को लेकर झील की ओर चली गयी। मैं बैठा-बैठा जवान हुए रिक्शे वालों को देख, ख़ुश हो रहा था। 

1 टिप्पणियाँ

  • 18 Apr, 2019 05:50 PM

    महेश रौतेला जी, बहुत सुन्दर कहानी है। जैसे हम परियों की जादुई दुनिया की सैर कर वापस लौटे हों। मन भावक कहानी 'परि और जादुई फूल' छाया अग्रवाल बरेली

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

यात्रा वृत्तांत
कविता
यात्रा-संस्मरण
कहानी
ललित निबन्ध
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में