कहते-कहते थका नहीं हूँ

15-04-2024

कहते-कहते थका नहीं हूँ

महेश रौतेला (अंक: 251, अप्रैल द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

कहते-कहते थका नहीं हूँ
इस कथा को पहन चुका हूँ,
नदियों के जल में नहा चुका हूँ
वृक्षों की छाँव बैठ चुका हूँ।
 
पगडण्डी तो बहुत मृदुल थी
शिखरों पर धुँध अधिक थी,
सोचा मैंने प्यार मधुर है
खट्टा उसमें स्वाद मिला है।
 
स्वर्गारोहण चाह रहा हूँ
मन हिमगिरि से बाँध चुका हूँ,
फूल चढ़ाने आया हूँ
सुख-दुख की संधि देख रहा हूँ।
 
मन आभा से चमक रहा है
कोई दर्शन रुका नहीं है,
समुद्र सरासर उछल रहा है
इस आसमान में शून्य नहीं है।
 
प्यार की मोटी चादर लेकर
माँ शिशु को ओढ़ रही है,
कहते-कहते थका नहीं हूँ
इसी स्थान पर प्यास बुझी है।

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