अपनी धरती अच्छी हो

01-10-2024

अपनी धरती अच्छी हो

महेश रौतेला (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अपनी धरती अच्छी हो
उठे शिखर हों, 
हरे वृक्ष हों
छलछल करती नदियाँ हों। 
 
विहग वनों में गूँजित हों
निडर हिरन वहाँ दिखते हों, 
आते जाते लोगों में
अच्छाई के दर्शन हों। 
 
टहल रहा हो जो मन के अन्दर
उस शिशु की नियति भली हो, 
धरती के गुण में अपना
विद्या का विद्यालय हो। 
 
कथा सुनने वाले हों
कथा उसकी गूढ़-गहन हो, 
दृश्य हो या अदृश्य हो
गतिमान सदा मिलता हो। 
 
उसकी टूट में जुड़ाव बड़ा हो
आगे का पथ, प्रशस्त बना हो, 
हिमगिरि सा मंच बड़ा हो
उसमें बैठा युग प्रवर्तक हो, 
उसके चाहे नाम अनेकों
लय होने में भाव एक हो। 
 
उसकी गरिमा छिन्न नहीं है
तोड़ो तो वही उदय है, 
वही पढ़े में वही अनपढ़ में
उसका दिखना वही समय है। 

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