ज़िन्दगी कुछ मेरी थी

15-10-2021

ज़िन्दगी कुछ मेरी थी

महेश रौतेला (अंक: 191, अक्टूबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

ज़िन्दगी कुछ मेरी थी
ज़िन्दगी कुछ तेरी थी,
साथ-साथ प्यार करती थी
क्षण-क्षण संसार रच देती थी,
कुछ गंगा जल सी बहती थी
कुछ सूख कर मर जाती थी,
दूर तक महकती थी
निकट अहसास बाँटती थी,
अँधेरों को बदलती थी
उजाला समेटती थी,
दौड़ने को राह बनाती थी
उड़ने को हवाई हो जाती थी,
संकट में मोर्चा लेती थी
शान्ति में विश्वास रखती थी,
रामायण से निकलते-निकलते
महाभारत में फँस जाती थी,
गालियों के असहज ताप पर
सुदर्शन चक्र चला देती थी,
ज़िन्दगी कुछ मेरी थी
ज़िन्दगी कुछ तेरी थी।
 
तुम्हें पहिचानती थी
मुझे  जानती थी,
किसी का विश्वास थी
किसी का संताप थी,
जहाँ-जहाँ से निकलती थी
वहाँ अपनी दृष्टि रख जाती थी,
बिखरे बालों सी
कभी काली, कभी श्वेत लगती थी,
ज़िन्दगी हमारे बीच नाचती थी
कहते-सुनते चुप हो जाती थी,
ज़िन्दगी कुछ मेरी थी
ज़िन्दगी कुछ तेरी थी।
 
ज़िन्दगी जब अजनबी थी
प्रश्नों नहीं पूछती थी,
जब-तब किसी क़दम को
साँप बन डस लेती थी,
इस पार से उस पार तक
कभी अमृत पिला देती थी,
विष की आदी थी
अमरत्व की आकांक्षी थी,
हमारे पड़ोस से
अनजाने रोटी उठा लाती थी,
काले कौवे को भी
प्रसाद दे आती थी,
बहुत विचित्र थी
कहा-अनकहा कह जाती थी,
हमारे बीच थी
कभी गहरी नींद में थी,
ज़िन्दगी कुछ मेरी थी
ज़िन्दगी कुछ तेरी थी।

* महेश रौतेला

1 टिप्पणियाँ

  • 31 Jan, 2022 08:47 PM

    रामायण से निकलते-निकलते , महाभारत में फंस जाती थी.... अति सुन्दर, वाह

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