ममता

महेश रौतेला (अंक: 219, दिसंबर द्वितीय, 2022 में प्रकाशित)

ये ममता की सीढ़ी है
जो चढ़ कर उतरनी होती है, 
ये पल-पल रुकती जाती है
पल-पल आगे बढ़ती है। 
 
ये बंजर में फूल खिलाती है
मिट्टी को उर्वर करती है, 
हँस कर हम तक आती है
बह कर रोया करती है। 
 
यह जीने की अबुझ पिपासा है
आँसू का खारा सागर है, 
यह धरा-गगन को बाँधे है
क्षण-क्षण सुख जगाये है। 
 
विद्युत सी चमक लिये हुए
इस अंतस में बिखरी है, 
यह उड़ते बादल सी आ जा
बूँद-बूँद मन से रिसती है। 
 
जीने में अर्थ भरती है
बाँहें खुलकर खोले है, 
यह जग की शाश्वत प्रक्रिया में
रह रह कर आनन्द घोले है। 

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