कौसानी (उत्तराखण्ड) की महिला
महेश रौतेला
कौसानी में दो महिलाएँ घास ले जा रही थीं, सिर पर रखकर।
उनमें से एक महिला ने कहा, “पहाड़क जीवन यसै हय पै!”
मैंने कहा, “बचपन में हमने भी ये सभी काम किये हैं।”
फिर वह बोली, “फिर तुम भ्यार न्है गनाला (फिर तुम बाहर चले गये होगे)!”
मैंने कहा, “होय” (हाँ)।
जन्म पहले से है
मृत्यु भी पहले से है,
बचपन, यौवन, बुढ़ापा उनसे निकल
घरों के आसपास रहते हैं।
झील की मछलियाँ
किनारे आती हैं,
नाव का नाविक
कुछ कहता रोज़गार पर
उसे भी भय है बेरोज़गारी का।
कौसानी की महिला
कह डालती है—
पहाड़ का जीवन “यसै हय पै“
उसके सामने हिमालय है
वह रोज़ का है,
उसके आसपास पहाड़ हैं
वे भी हर रोज़ के,
घास की गठरी सिर पर रख
वह कहती है—
“पहाड़क जीवन यसै हय पै“
(पहाड़ का जीवन ऐसा ही हुआ),
मैं सोचता हूँ—
हाँ, श्रम में ही जीवन है
जन्म से मृत्यु तक,
मृत्यु से जन्म तक।
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