प्रिय महाविद्यालय

01-11-2020

प्रिय महाविद्यालय

महेश रौतेला (अंक: 168, नवम्बर प्रथम, 2020 में प्रकाशित)

प्रिय महाविद्यालय,

वर्षों बाद तुम्हें चिट्ठी लिखने का मन हो रहा है। जो तुम्हारे सान्निध्य में आया तुमने अपने सामर्थ्य के अनुसार ज्ञान दिया। कई सफल रहे होंगे और कई सफल होने जा रहे होंगे। धुँध आयी और चली गयी। मैंने तुम्हारे बारे में छुटपुट कुछ लिखा होगा और अन्य सबने अपनी तरह। किसी को तुम्हारा सानिध्य सुन्दर लगा होगा, रोमांसभरा, रोमांचक, अद्भुत, अलौकिक। चार साल सापेक्षता का सिद्धांत लिए कब गुज़र जाते हैं, पता ही नहीं लगता। आज भी लिखने में अच्छा लगता है–

"हथेली जो तुमने छुई
निखरी हुई है,
दूसरे हाथ से छू
बार-बार जाँचता हूँ
कितने निकट हो तुम।"

एक ओर उच्च शैक्षणिक वातावरण दूसरी ओर छुट्टियों में गाँव जाने की अनुभूतियाँ।

तब गाँवों में साक्षरता बहुत कम थी। सन छिहत्तर की बात होगी। उसका पति दिल्ली में नौकरी करता था। वह गाँव में रहती थी। पढ़ी-लिखी नहीं थी। यदि थोड़ी बहुत होगी भी तो चिट्ठी लिखने में असमर्थ थी। लेकिन पति के घर आने पर अधिक किरशाण (कार्यकुशल) हो जाती थी। उसने एक दिन मुझसे कहा,"एक चिट्ठी लिख दो, मेरी।" वह पत्र और क़लम ले आयी। मैंने क़लम और पत्र हाथ में लिये और पूछा क्या लिखूँ। वह सोच में डूब गयी। फिर मैं बोला, लिख दूँ, "मेरे प्रेमी, प्राणनाथ।" 

यह सुनकर वह शरमा गयी। उसके गाल लाल हो गये। वह मुस्कुराते हुये बोली,"हाँ, कुछ ऐसा ही लिख दो।" उन दिनों पति का नाम नहीं लिया जाता था। पता नहीं यह परंपरा कब शुरू हुई? अब तो नाम लेना आम बात है। फिर घर की सब बातें चिट्ठी में लिखता गया और गाँव की मोटी-मोटी ख़बरें भी। जैसे बर्फ़ पिघल चुकी है। बच्चे ठीक हैं। नारंगी पक चुकी हैं। वे बातें भी जो जंगल, घास,जानवरों की होती हैं और ज़िन्दगी सी जुड़ी होती हैं। घर कब तक आवोगे? मनीआर्डर मिल गया है। वह बताती गयी, मैं लिखता गया जैसे वेदव्यास जी बोलते रहे और गणेश जी लिखते रहे। अन्त में फिर पूछा लिख दूँ, "तुम्हारी प्रियसी।" तो वह  फिर शरमा गयी। इस बार जब गाँव जाना हुआ तो उनके बारे में पूछताछ की। पता चला वह गंभीर रूप से बीमार है। चल फिर नहीं सकती है। बोल नहीं पाती है। इशारों में कुछ कहती है। मेरी आँखों में उसका ख़ुशहाल अतीत जीवंत हो उठा। साथ में जीवन का वसंत और विवशता भी।

मेरे प्रिय महाविद्यालय

"हमारे ज़माने  की लड़कियाँ 
बोलती  नहीं थीं, 
मन ही मन में 
सुनती, सुनाती थीं।
आज वे हमारी  तरह
बूढ़ी, बुज़ुर्ग हो गयी होंगी,
राजा-रानी की कहानियाँ 
किसी न किसी को बताती,
अपने ज़माने के द्वार खोल
खिड़कियों से झाँकती,
खोया कुछ खोजती
सदाबहार बनी यादों को
काटती-छाँटती,
साड़ी की तरह लपेट लेती होंगी।
पगडंडियाँ जो सड़क बन चुकी,
नदियाँ जो सिकुड़ चुकी,
वन जो कट चुके, 
शहर जो  घने हो गये,
सबको पकड़ती,
हमारे ज़माने  की लड़कियाँ 
किसी न किसी को बताती होंगी।
हमारे ज़माने  की लड़कियाँ 
बोलती  नहीं थीं, 
मन ही मन में 
सुनती, सुनाती थीं।"

तुम में जब प्रवेश लिया तो पहली बार अँग्रेज़ी माध्यम की तलवार गर्दन पर पड़ी। क्योंकि बारहवीं तक विज्ञान हिन्दी में ही पढ़ा था। ख़ैर,चक्रव्यूह में अभिमन्यु बन कर प्रवेश लगभग सभी को करना था। धृतराष्ट्र यदि शासक हो तो सातों महारथी अभिमन्यु को मार ही देंगे। चक्रव्यूह से बाहर निकल आया, कुछ साथियों के साथ। 

मेरे प्रिय महाविद्यालय, तुम्हारे बारे में सबके अपने-अपने अनुभव और अनुभूतियाँ हैं। जो मैंने इंटरनेट पर पढ़ी और गुनी हैं। बटरोही सर, स्मिता जी, मेवाड़ी जी और अपने सहपाठियों आदि के संस्मण मुझे जिज्ञासु बनाये रखते हैं तुम्हारे बारे में। मैं अपने अनुभव और अनुभूतियों को याद करता हूँ। भौतिक विज्ञान  प्रयोगशाला, रसायन विज्ञान प्रयोगशाला के बाहर हाड्रोजन सल्फाइड की गन्ध। बहुत सी घटनाएँ याद हैं और बहुत सी भूल गया हूँ। भूलचूक माफ़ करना। बी.एसी. में साथ पढ़े साथी जो फ़ेसबुक से फिर मिल गये कहते हैं, "यार हम मल्लीताल (नैनीताल) से तल्लीताल साथ-साथ घूमने जाते थे। लेकिन मुझे याद नहीं आता है और मैं यूँ ही "हाँ" बोल देता हूँ। अल्का होटल के आगे और नैना देवी मन्दिर के पास एक फ़िल्म की शूटिंग की याद है। एक बार कॉलेज से मल्लीताल जाते समय सेंटमेरी की लड़कियों ने मेरा रास्ता रोक दिया था, वे लगभग नौ-दस रही होंगी। मेरी छोटी बहिन की आयु की होंगी, सब। मेरे हाथ-पाँव फूल गये थे, असमंजस में। लगभग दो-तीन मिनट यह सब चला था फिर एक किनारे से जगह मिल गयी। वे ख़ूब हँस रही थीं और मैं राहत महसूस कर रहा था। संख्या में बल और आनन्द होता है, ऐसा लगा। चालीस साल बाद जब मैं तुम्हारा रास्ता नैना देवी मंदिर की ओर से तय कर रहा था तो उसी स्थान तक पहुँच पाया जहाँ पर सेंटमेरी की लड़कियों ने मुझे घेरा था। और चढ़ाई व थकान के कारण आगे बढ़ नहीं पाया था। लेकिन वह दृश्य मेरे चेहरे पर हल्की मुस्कान ले आया। समय की अपनी एक मधुर लय होती है।

बी. एसी. से एम.एसी. में आते-आते बहुत परिवर्तन आ चुके थे। तब मैं रसायन विज्ञान परिषद का उपाध्यक्ष और अध्यक्ष रहा था। सांस्कृतिक कार्यक्रम जो ए. एन. सिंह हॉल में होते थे उसमें नाटक हमारी ओर से भी प्रस्तुत हुए थे। उस समय लड़कियाँ सामान्यतः नाटकों में अभिनय नहीं करती थीं। अतः लड़के ही लड़कियों का अभिनय करते थे। उस समय रामलीलाओं में भी यही प्रचलन था। लघंम छात्रावास में मेरा सहपाठी रहता था और मैं प्रायः उससे मिलने एस.आर.और के.पी. छात्रावासों के रास्ते जाया करता था। दोनों लड़कियों के छात्रावास हैं। तब मधुर कंठों से समधुर शब्द बाण सुनने को मिल जाते थे। जैसे "दिल दिया दर्द लिया" आदि। वैसे यह फ़िल्म का नाम है। १९७७ में एक आन्दोलन हुआ था तब मैंने भी कला संकाय के आगे भाषण दिया था। उसके कुछ दिन बाद हम दो साथी एस.आर. छात्रावास के सामने वाली पगडण्डी से गुज़र रहे थे। लड़कियाँ छात्रावास के आगे बनी दीवाल (खोयी) पर बैठी थीं। जैसे ही हम ठीक उनके नीचे से जाती पगडण्डी से जा रहे थे तो सब बोल उठीं, "हमारे नये अध्यक्ष (प्रेज़िडेंट) जा रहे हैं" आदि। संख्या बल आनन्द भी देता है और उसकी संरचना भी करता है। 

प्रिय महाविद्यालय, जब फ़ेसबुक आया तो पुराने सहपाठियों को ढूँढ़ने का एक माध्यम मिल गया।  ख़ुशी का एक रास्ता खुल गया। लेकिन अपवाद भी निकले। हमारी एक सहपाठी लड़की थी, वह तब दुबली-पतली थी, जो सामान्यतः होता है उस उम्र में। उसने अपनी वर्तमान फोटो के साथ पृष्ठभूमि में पहले की फोटो लगायी थी। वर्तमान फोटो में वह पहिचान में नहीं आ रही थी। तो मैंने कुछ लिख दिया था तो उसे शायद लगा कि मैं उसे मोटी कह रहा हूँ! तो उसने अँग्रेज़ी में लिखकर मुझे पहिचानने में ढुलमुलपन की नीति दिखायी। सहपाठी लड़कियाँ जितनी मिली सब अँग्रेज़ी में ही उत्तर देती हैं, तो माहौल शुष्क हो जाता है। हम ही राष्ट्रवादी बने रहे, तब भी अब भी। मैं तो १९९९ में जब डलास (यूएसए) गया तब भी अपनी हिन्दी कविता जो "गुजरात वैभव" में छपी थी वहाँ हमारे मेज़बान को दे आया। और हमने उन्हें (श्री गेरी) उसका अँग्रेज़ी अनुवाद भी बताया। 

जब मैं अध्यक्ष था परिषद का तो एम.एसी. प्रथम वर्ष की लड़कियाँ (शायद चार थीं) हमें मिलने पर मुझे नमस्कार करती थीं। एक दिन उनको आता देख मेरा दोस्त बोला, "मैं तेरी इज़्ज़त मिट्टी में मिलाता हूँ, यदि तुझे नमस्कार करेंगी तो।" एक प्रफुल्लित  मज़ाक का अपना आनन्द होता है। 

परिषद के सत्र उद्घाटन समारोह में खगोल शास्त्र (एस्ट्रोफिजिक्स) पर लेक्चर देने के लिए  वेधशाला से वरिष्ठ वैज्ञानिक महोदय को बुलाया गया था। उसमें एम.एसी. प्रथम वर्ष के एक छात्र ने एक गाना गाया था, बहुत सुन्दर। २०१८ में, व्हाट्सएप पर आये छह गानों में वह गाना भी था। जब मेरे संपर्क के तब के सहपाठियों  से मैंने उस गाने को पहिचानने की बात की तो लड़कों को वह याद था। 

मेरे प्रिय, जब भी तुम्हारी यादों का समुद्र छलछलाता है, मैं किनारे बैठ कर उनकी लहरों को देखता हूँ। बहुत बार दोहराव भी हो जाता है लेकिन मन में जिज्ञासा बनी रहती है। बहुत कुछ होता है, कुछ अपने पास रह जाता है जैसे घोंसले में चिड़िया। शेष फिर।

तुम्हारा स्नेही —
महेश रौतेला

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

कविता
कहानी
ललित निबन्ध
स्मृति लेख
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में