मेरी विकास यात्रा. . .
सुशील यादवविकास के नाम पर उनका ख़ासा तजुर्बा है।
यूँ लोग तो कहते हैं वे पिछले बीस-बाइस सालों से विकास की रोटी चीथ रहे हैं। ये हमको पता तभी चलता है जब इलेक्शन वाले दिनों वे अख़बारों की सुर्ख़ियाँ बटोरने लगते हैं। उनका इलेक्शन कमीशन ऑफ़िस का चक्कर काटना और ब्रेकिंग न्यूज़ बनना दोनों उसे आत्मीय सुख देने वाला या मानो दबी इच्छाओं कि पूर्तिदाता होने माफ़िक लगता है।
नाली से लेकर गंगा सफ़ाई की बात करने में वे सिद्ध-हस्त बताये जाते हैं। वे कहते हैं नाली में पैसा नहीं था मगर लोगों ने जब से पैसा बहाना चालू किया है तब से यहाँ भी पैसा आ गया है। वे नाली सेवा को म्युनिस्पल के दिनों से आज तक भूल नहीं पाये। वे कहते हैं, "उनके पास आज जो कुछ भी है सब इसी नाली प्रेम से उत्पन्न हुआ है।"
लोग उन दिनों बहुत छोटी-छोटी उम्मीदें और समस्याएँ लेकर आते थे। उनमें घर के सामने बेतरतीब गन्दे पानी के निकासी की समस्या अहम् हुआ करती थी। यूँ कि जैसे पति के पेट की तुष्टि, गृहणी के बनाये सन्तुलित-स्वादिष्ट भोजन से होती है वैसे ही राजनीति की, के.जी. क्लास नाली से आरंभ होती है। इस गुरु ज्ञान की वैतरणी में जो डूब–उतरा ले, उसकी परलोक वाली वैतरणी के पार होने की गारेंटी हम यहीं लिख दे रहे हैं।
उनके सतत अभ्यास ने इन दिनों उनको गंगा के समकक्ष बोलने लायक़ बना दिया है। वे सफ़ाई अभियान पर धारा-प्रवाह मीलों बोल-चल सकते हैं। आम बोलचाल की भाषा में कहें तो वे राजनीति के गड्ढे-खड्डों में लीन हो गए हैं। अपने नाम का खूँटा गड़ा दिया है। सही ढंग से गड़े हुए खूँटे को एक नाम सहज मिल जाता है। सो उनके साथ भी 'भाई' अपने आप कब जुड़ गया पता नहीं। वे गनी से गनी भाई ,और मुस्लिम इलाक़ों में ‘जान’ जोड़ के ‘गनी भाई जान’ फ़ेमस हो गए।
उनके पास लोगों के दुःख-दर्द को तोलने की नायाब मशीन थी . . . उनका दिल। बिना बुलाये वे किसी शादी-ब्याह में लिफ़ाफ़ा भेंट कर आते। जेब से उनकी चवन्नी भी नहीं ज़ाया होती और काम वाजिब हज़ारों का हो जाता है।
वे जिस शिद्दत से इन मौक़ों पर शरीक होते, उसी मायूसी से किसी जनाज़े और अर्थी को कंधा दे आते। बिना भाई जान के, मरने वाले को सुकून नहीं मिलता हो, शहर के लोग क़रीब-क़रीब यही मानते।
गनी भाई की टिकट हर इलेक्शन में लगभग पक्की रहती। 'लगभग' पक्की जैसे अनुमान लगाने का यूँ तो कोई मायने नहीं। वे जिस जगह से कहें. . . मिल जाती है; मगर वे अपने इलाक़े को छोड़ने का कभी सोचे हों, ऐसा सोचने में भी पाप लग सकता है। उनके सीट की विश्वनीयता इतनी ज़्यादा रहती कि सी.एम. कैंडीडेट को वही सीट भा गई। सोच सकते हैं,भाई जान की क्या हालात हुई होगी . . .?
गनी भाई को सदमों के पलों में आपे में रहना भी आता। वे रह लिए। फ़रमाइश और लेनदेन की राजनीति उनको आई नहीं या वे कभी सीखे नहीं? इस रहस्य से आज तक पर्दा उठ नहीं पाया।
परिणामत: उनके लड़के क्लर्की और मिडिल स्कूल में टीचर होने के अलावा आगे के सपनों से ताज़िंदगी मरहूम रहे।
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गनपत मेरी हर रचना को पांडुलिपि क्षेत्र में घेर के पढ़ लेता है। कई एक सुझाव भी दे डालता है। उसे अपेक्षा होती है कि उसी की सोच के अनुरूप अंत या बदलाव करूँ तो रचना में निखार आ जाएगा। मैं उसके विचारों को कितना तूल देता हूँ. . . कह नहीं सकता। मगर मुझे एक अच्छे प्रूफ़ रीडर से चूँकि वंचित नहीं होना है, मैं बिना बहस उन बातों/सुझावों पर ग़ौर कर लेता हूँ।
इस रचना को पढ़ कर वो तपाक से बोला, "कहाँ आप सन सैंतालिस की दुनिया में भटक रहे हैं? ये नेता आज के केरेक्टर से मेल खाता है क्या. . .? साहेब, सब बटोरने में लगे हैं। माल बना रहे हैं। दबंगई करते हैं। बँधे, खूँटे छुड़ा-छुड़ा के इधर से उधर भाग रहे हैं, और आपका ये गनी भाई, क्या कहते हैं . . . गनी भाई जान . . . को बिना ज़ुर्म जान के लाले पड़ गये?
"इतना निरीह नेता आपने कभी देखा सूना है जो स्केच खींच डाले . . .? अरे नेता आज वो होता है जो महज़ एक फोन में आई ए एस की पतलून में हवा फुला देता है।
"जो गंगा को देवी माँ न जान कर, इस जन्म की लोकल वैतरणी मान कर इस्तेमाल कर रहा है; गन्दगी जो विचारों की है, उसे यहीं धो रहा है। माँ गंगे तो हर बाढ़ में अपने-आप साफ़ होते रहती है; उसे ये दरिद्र भला क्या साफ़ कर पाएँगे. . .?"
गणपत , क़रीब-क़रीब हाँफने के स्तर पर था। पिछले की कई रचनाओं के पठन-वाचन में उसके चहरे पर खिंचाव आते कब देखा हो पता नहीं. . .? उसका कथन जारी था - "साहेब . . . कुछ करो . . .! एक भ्रष्ट सी.एम. किसी की सीट कैसे हथिया सकता है. . .? ये तो प्रजातन्त्र का मखौल है ।
"आदमी मेहनत-मशक़्क़त से अपनी खेत को उर्वर-उपजाऊ बनाये और दबंग कौड़ी के भाव या बिना कौड़ी दिए वहाँ क़ाबिज़ हो जाए तो समझो मुंशी प्रेमचन्द के ज़माने में, हमारा समाज लाखों आरक्षण सुविधा देने के बाद, वहीं लौट आया है।
"आप गनी भाई को कैसे भी हो हीरो बनाइये. . .!
"एक बार उनके पक्ष में माहौल तैयार कीजिये. . .! वे भले इलेक्शन न लड़े हों . . . उनको उनकी जाति-समुदाय का लाभ देकर अगला सी एम होने की हवा फूँकिये! हमारे देश में हवा फूँकने भर की देर है, चिंगारी कहीं न कहीं रहती है, लपट बन के उठेगी ज़रूर!"
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