नर्म लहजे का कहीं खेल तुम्हारा ही न हो

01-09-2025

नर्म लहजे का कहीं खेल तुम्हारा ही न हो

सुशील यादव (अंक: 283, सितम्बर प्रथम, 2025 में प्रकाशित)

 

फ़ाएलातुन फ़इलातुन फ़इलातुन फ़इलुन
2122    1122    1122    112
 
नर्म लहजे का कहीं खेल तुम्हारा ही न हो
हम मुसाफ़िर यहाँ क़िस्सा ये हमारा ही न हो
 
यूँ नहीं खौफ़ में तुझको भी पुकारा ही न हो
दौरे-उल्फ़त में मिला जैसे किनारा ही न हो
 
हम भी बेचैन रहा करते थे तन्हाई में
मेरी ज़ानिब तेरा कोई तो इशारा ही न हो
 
इन जमातों में कहीं शोर शराबा ही नहीं
ये फटे हाल जियें इनका ग़ुजारा ही न हो
 
डूब जाती वहीं क़श्ती उसी मझधार जहाँ
जब भँवर पास में वाज़िब सा किनारा ही न हो
 
हम जुदा हो के भी यादों में कभी मिल लेते
तुझको अहसास का मंज़र ये गवारा ही न हो
 
और मुझको कहीं जी भर के सता लेना कभी
मेरी क़िस्मत में लिखा कोई सितारा ही न हो
 
ग़म की आँधी से बचा लाया हूँ उम्मीद सभी
क्या पता कल यहाँ बैठा तिरा मारा ही न हो
 
हौसला है तो तबीयत से भी जीना सीखो
ज़िन्दगी रोज़ महरबान दुबारा ही न हो

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