कभी ख़ुद को ख़ुद से

28-07-2014

कभी ख़ुद को ख़ुद से

सुशील यादव

घनाक्षरी/ ग़ज़ल


कभी ख़ुद को ख़ुद से, रूबरू हो कर देखो
मिट्टी में बारिश की, ख़ुश्बू हो कर देखो

रिश्ते टूटे-बिखरे, दिखते हैं आसपास
जोड़ने की नीयत हो, शुरू हो कर देखो

बंद कमरा, तल्ख़ी, घुटता हुआ सा दम
खुली हवा सर्द आरज़ू हो कर देखो

जो चल जाए गहरे, वो आसान तिलस्म
जग जो छा जाए सही, जादू हो कर देखो

कहाँ से कहाँ दुनिया, देखते-देखते चली
किसी कोने में खड़े हो, बाजू हो कर देखो

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