भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते

01-05-2023

भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते

सुशील यादव (अंक: 228, मई प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

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भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते 
हमें हर हालात मारे समझ नहीं आते 
 
जुगनुओं को पास के मैं समझ लेता 
हुए दूर अगर सितारे समझ नहीं आते 
 
ख़ला में दिन-रात क्या ढूँढ़ते जनाब आली 
करें मातम ये बिचारे समझ नहीं आते 
 
मेरे भीतर एक रहता सदा बना ख़ामोश 
मुझे उसके क्यों इशारे समझ नहीं आते 
 
कहीं ज़ेहन बुग्ज़ सा तो रहा नहीं हाज़िर 
सितम वाले तैश सारे समझ नहीं आते
 
भटक रहा हूँ रात दिन यहाँ बना काफ़िर
खुली क़िस्मत के दुवारे समझ नहीं आते 
 
 बुग़्ज़= (अरबी; संज्ञा, पुल्लिंग) वह बैर जो मन ही मन में बढ़ाया जाय, और प्रकट न किया जाय, द्वेष, बैर, छल, कपट, ईर्ष्या, दुश्मनी, कीना, हसद, जलन

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