शातिर वो

01-04-2024

शातिर वो

सुशील यादव (अंक: 250, अप्रैल प्रथम, 2024 में प्रकाशित)

 

अब तो वो कतरा के निकल जाता है
ख़ुद ही बस शरमा के निकल जाता है
 
चक्कर काटे नहीं गली में फिर कोई
शातिर वो सर झुका के निकल जाता है
 
अब जो हालात बस तरस के क़ाबिल
आ लम्हा भर सताके निकल जाता है
 
काटे को दौड़ती ये तन्हाई जब
बिस्तर सिलवट बिछा के निकल जाता है
 
मुझको भी ख़ामियाँ ख़तायें मालूम
यादों जंगल उगा के निकल जाता है
 
नज़रें बोलो गड़ाऊँ पुस्तक में कितनी 
कुछ फूलों को दबा के निकल जाता है

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