यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं

15-12-2024

यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं

सुशील यादव (अंक: 267, दिसंबर द्वितीय, 2024 में प्रकाशित)

 

जमील मुसद्दस सालिम
मुफ़ाइलातुन मुफ़ाइलातुन मुफ़ाइलातुन
 
12122    12122    12122
 
यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं
दिलों में रोते सभी, जहाँ, सिसकियाँ न होतीं
 
गिराने वाले, नसीब मेरा बनाते जाते
बहाने पर नाचती कोई, बिजलियाँ न होतीं
 
अभी तुझे, क्या पता, हिमायत किसे कहें हम
निगाह उड़ती हुई यहाँ, तितलियाँ न होतीं
 
ख़बर यहाँ उड़ रही, अभी है मरीज़ ज़िन्दा
‘सुशील’ इतनी, यदा-कदा तल्ख़ियाँ न होतीं
 
तमाम दिन बोलते रहे, काटने की बातें
ज़ुबाँ फिसलती यहाँ, कभी छूरियाँ न होतीं

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