उर्वरक

सुशील यादव (अंक: 240, नवम्बर प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

 

एक दिन, 
हम करुणा की अलमारी से हम
सहानभूति की किताब उठा लाए
पृष्ठ पहला वो खोला
जहाँ
हाशिए के सिवा हमें
हासिल नहीं था कुछ
 
हालाँकि, 
योजना की तिजौरी में
बंद थी
संभावनाएँ अपार, 
सुधार की गुंजाइश में
हर आम आदमी के आस-पास
इर्द-गिर्द
भटकती
घूमती हुई . . .
 
कुछ . . . हिचकोले खाकर
पटरी से उतरी हुई
मनः स्थितियाँ भी थीं
जहाँ नाकामियों का ठीकरा
फोड़ने के लिए
सदा की भाँति एक अदृश्य
मज़बूत विपक्ष
विद्यमान था . . .
 
अक़्सर ये होता है
तरस खाती सरकारी संवेदनाओं को
पेट के सरोकार से
नापने की
ग़लतियाँ होती है हमसे
हर बार
हम नाप लेते है हर आदमी का
वज़न . . .
दुर्भिक्ष में . . . या
राशन से भरे
खिलौनों को बाँट
पालते हैं वहम . . .
नई तरक़्क़ी, 
नए समाजवादी
सोच का . . . और
सीना ठोक
कुनबा-कुनबा, जात-जात
खेत-खेत गाँव-गाँव
बाँट के दंभ से कहते हैं
हमने
प्रजातंत्र की नींव में
अपने हिस्से का
उर्वरक डाल दिया है . . .

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