तो ग़ज़ल होती है

09-01-2012

तो ग़ज़ल होती है

सुशील यादव

चोट दिल पे खा लो तो ग़ज़ल होती है
जुमलों को चबा लो तो ग़ज़ल होती है
उड़ती हवाओं में ख़्वाब की बेतरतीब
दुपट्टे को सम्हालो तो ग़ज़ल होती है

रहमत से किसी बच्चे को उठा लो तो ग़ज़ल होती है
अपनी अदावत से किसी को बचा लो तो ग़ज़ल होती है
कुछ एहसास के दिए जला लो तो ग़ज़ल होती है
मोती की तरह तिनकों को सजा लो तो ग़ज़ल होती है

महवे-यास दिल को, दिल से भुला लो तो ग़ज़ल होती है
एक पत्थर तबीयत से उछालो तो ग़ज़ल होती है
संगीन जुर्म का कोई गवाह बना लो तो ग़ज़ल होती है
ज़हर भी दूध की तरह उबालो तो ग़ज़ल होती है

अपनी ज़मीन पे कोई हक़ न जताए तो ग़ज़ल होती है
अपनी पकड़ नाहक़ न हटाए तो तो ग़ज़ल होती है
अपने मक़सद में वही शख़्स कामयाब है ज़ोरदार
उदासी को छोड़ के मुस्काये तो ग़ज़ल होती है

अपने वादे से कोई मुकर न जाए तो ग़ज़ल होती है
टूट कर कोई बिखर न जाए तो ग़ज़ल होती है
कितने बोझिल से रहते हैं मेरे अल्फ़ाज़
कोई संगदिल इसे होठों से लगाये तो ग़ज़ल होती है

जलजले में कोई तरकीब निकाले तो ग़ज़ल होती है
भूखे को खिला दे राहत के निवाले तो ग़ज़ल होती है
मुहब्बत की है बेपनाह बेनामी सल्तनत चार तरफ़
अपने नाम कोई ये जायदाद लिखा ले तो ग़ज़ल होती है

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