दिले नादां तुझे हुआ क्या है ...?
सुशील यादवदिल के नादान होने की अमूमन उम्र सोलह से बाईस चौबीस की होती है। इस उमर में उल्फ़त के नग़्मे, इश्क के फ़ितूर, आशिकी के मिज़ाज, और आवारग़ी के न जाने कैसे-कैसे चोंचले दिमाग़ में घुसे होते हैं।
कुछ साइंटिस्टों ने बता रखा है कि दिल या दिमाग़ के फिसलने का न कोई मौसम होता है, न दिन बादल होते हैं, और न ही कोई उमर होती है।
दिल के ‘बच्चा’ होने की घोषणा कोई भी, किसी भी उमर में, कर सकता है । ’दिल तो बच्चा है जी’ कहके किसी भी अक्षम्य अपराध से माफी माँगी जा सकती है।
अपने तरफ़ के, अच्छन मियां को सठियाये हुए पाँच-छह साल हो गए। दिल अब भी जवान लिए घूमते हैं। अपने अतीत के दस-बीस प्रेमिकाओं के क़िस्सों को आज भी अनुलोम-विलोम की तरह बिना नागा दोस्तों की महफ़िल में दुहराते रहते हैं। इन क़िस्सों से बेग़म यक़ीनन नावाकिफ़ रहती हैं वरना वे भरी मह्फ़िल शीर्षासन करवाने से बाज़ न आती।
अच्छन मियां का नारा है जो काम करो ‘डंके की चोट’ पर करो, मगर डंका इतनी दूर हो कि आवाज़ बेग़म तक न पहुँचे।
उनने सठीयाये हुए सालों को, यादों की जुगाली के सहारे बिता देने के कई सारे प्लान बना रखे थे। टी.वी. वालों ने उन पर पानी फेर के रख दिया। सत्यानाश हो इन चैनलों का। मिनट-दर-मिनट ब्रेकिंग न्यूज़ दिखा कर, उत्सुकता को प्रमिका की तरह ज़िंदा रखते हैं, कल मिलोगे तो एक अच्छी बात बताऊँगी। मिल लो तो, कहती है कौन सी बात .....?’
अच्छन मियां को अफ़सोस होता है कि सिवाय इश्क फ़रमाने और अब्बू मियां की दूकान में अंडे बेचने के सिवाय वे कुछ कर न सके।
अच्छन मियां दूकान के खाली समय में ‘स्वस्फूर्त दार्शनिक’ हो जाया करते हैं।
सब पुराने प्रकांड विद्वान, पंडित, महात्मा, साधू लोग ज्ञान कहाँ से पाते रहे... ?
वे सोचते, उस ज़माने में न साहित्य का भंडार पढ़ने को था न आज जैसी गूगल साईट थी।
बस पालथी मार के योग आसन लगा लो, आँखें बंद कर ध्यानस्थ हो जाओ, ज्ञान की बड़ी-बड़ी फ़ाइल अपने-आप डाउनलोड हो जाती थी। अंत में प्रभु स्वयं आकर पूछते वत्स कुछ और डाउनलोड करना है?
अपनी दूकान में दार्शनिकता के अलावा अच्छन मियां को समय-समय पर समीक्षक, आलोचक या क्रुद्ध वक्ता बनते इस मोहल्ले के कइयों ने देखा है।
आपने अंडा लिया नहीं कि वे बातों में उलझा लेते हैं।
"क्या लगता है आपको, ये झाड़ू वाले आगे टिक पायेगे .....?”
"ग़ज़ब की टेक्नीक है जनाब दाढ़ी वाले की, हर किसी से, प्यारा खिलौना, बच्चों की तरह छीने जा रहे हैं।
कहीं गाधी झपट लिये, लोगों ने कुछ न कहा चलो, वे महात्मा थे सब के थे, उनके भी हो लिए कोई बात नहीं। देखते-देखते पटेल ले लिए, शिवाजी ले गए, नेहरू को छीने जा रहे हैं। जनता के दिलो-दिमाग़ में अपने आदर्श का सिक्का जमाये दे रहे हैं, भूल के भी अब अटल जाप नहीं करते पता नहीं क्यों ?
राम, फिर राम की मैली गंगा, सब उन्हीं का हुए जा रहा है। मैं तो कहता हूँ, बातों का माया जाल है, सम्मोहन है। सम्मोहित हुए जा रही है, जनता। इन्हें तंद्रा से आखिर जगाने वाला है कोई ....?
अच्छन मियां, मुंशी जी को पढ़े होने का प्रमाण देते कहते हैं, क़लम के जादूगर अकेले मुन्शी जी थे। उनकी लेखनी में ग़ज़ब का सम्मोहन था लोग उनके बनाए लिखे पात्रों को आजीवन बिसरा न पाते थे।
अब जो बातों के जादूगर पैदा हो गए हैं वे ‘मॉस’ को हिप्नोटाईज़ किये दे रहे हैं।
अपनी जनता, हर किसी के सम्मोहन में, बातों-बातों में आ जाती है। कभी योग बाले बाबा, कल के मदारी की तरह, बकबक करते-करते अंत में अपनी दवाई, अपने नुस्खे के बेच के, जेबें ढीली करवा लेते हैं। कभी ‘इनट्यूशन’ वाले बाबा सरे आम लोगों को बताते हैं कि ‘शक्तियाँ’ कहाँ छिपी हुई हैं क्यों आपके काम में रुकावटें पड़ रहीं हैं?
कल ये किया है तो आज ये कर, यहाँ ये चढ़ा वहाँ वो टोटका कर, शक्तियाँ तेरे काम में मदद के लिए तैयार बैठी हैं। चल, ’दसबंद’, इधर ढीली कर।
नादान लाखों लोगों को झाँसे में आते करोड़ों ने देखा है, देख रहे हैं। इन ‘झाड़ फूँकिस्टों’ की सम्मोहन विद्या ज़बरदस्त होती है।
शुरू-शुरू में नादां दिल वाले कुछ कौतुहल में इनके नज़दीक जाते हैं, बाद में इनके मुरीद बनते समय नहीं लगता। वे लोग इनका परचम उठा लेते हैं।
अपने तरफ़ लंबी लाइन के पीछे एकाएक खड़े हो जाने की परंपरा सदियों से है।
”येन गता: सा पन्था” मानने वालों की कमी, कभी न रही।
जिस गली में तेरा घर न हो बालमा उस गली से हमें गुज़रना नहीं, जैसी कमोबेश स्थिति सदियों से बनते रही है।
जहाँ झंडे का रंग हमारे मन के माफ़िक न हो वहाँ हमारा क्या काम ....?
लाइन में खड़े होने के, देर बाद पूछते हैं ये लाइन किसलिए है भाई?
कोई देर से खड़ा, खिसियाया हुआ कह देता है मय्यत में आये हैं, कंडे देना है.....। ये सुन के अगला किसी बहाने खिसक लेता है।जान न पहचान फिर कंडा काहे का...?
अच्छन मियां के साथ यही कुछ ‘मिट्टी’ देने के नाम पर हो जाता है ....। वैसे भी वे किसी की मय्यत में जाने से तौबा किये रहते हैं।
लेटेस्ट रिपोर्टिंग के लिए मैं कहीं और नहीं भटकता। देश-विदेश, मोहल्ला-पड़ोस की सभी जानकारी बिना कहीं गए, अच्छन मियां मार्फ़त मुहय्या हो जाती है।
मुहल्ला पड़ोस में लड़की भागने-भगाने के क़िस्से हों, रेप बालात्कार की कोई घटना हो तो उनके दूकान में अंडों की बिक्री में, ज़बरदस्त उछाल आ जाता है।
कभी कभी अच्छन मियां जब ग़ुस्से में होते हैं, तो देशी जनता उनके ग़ुस्से का निशाना बनती हैं।
मसलन, देखो कैसी भेड़ चाल है। जिसे देखो आजकल झाड़ू की बात करता है।
हिम्मत है तो काहे नहीं फेर देते प्रजातंत्र की कीचड़-गन्दगी में झाड़ू .....?
लड्डू को प्रसाद की तरह टुकड़े-टुकड़े बाँट देती है ये जनता।
किसी एक पार्टी को बड़ा सा टुकड़ा दे के क़िस्सा ख़तम करो। किसी एक की भूख तो मिटे।
दुअन्नी चवन्नी पकड़ाने से ‘ईदी’ मनने की नहीं, दो तो अठन्नी से उप्पर की दो ....।
ये नादां लोग न जाने आमची मुंबई को कहाँ ले जाने पे उतारू हैं ...क्या पता .?
0 टिप्पणियाँ
कृपया टिप्पणी दें
लेखक की अन्य कृतियाँ
- ग़ज़ल
-
- अधरों की अबीर . . .
- अन-मने सूखे झाड़ से दिन
- अपनी सरकार
- अवसर
- आजकल जाने क्यों
- आदमी हो दमदार होली में
- आज़ादी के क्या माने वहाँ
- इतने गहरे घाव
- इश्तिहार निकाले नहीं
- उन दिनों ये शहर...
- एतराज़ के अभी, पत्थर लिए खड़े हैं लोग
- कब किसे ऐतबार होता है
- कभी ख़ुद को ख़ुद से
- कामयाबी के नशे में चूर हैं साहेब
- कितनी थकी हारी है ज़िन्दगी
- किन सरों में है . . .
- कुछ मोहब्बत की ये पहचान भी है
- कोई जब किसी को भुला देता है
- कोई मुझको शक ओ शुबहा नहीं रहा
- कोई सबूत न गवाही मिलती
- गर्व की पतंग
- छोटी उम्र में बड़ा तजुर्बा.....
- जब आप नेक-नीयत
- जले जंगल में
- जिसे सिखलाया बोलना
- तन्हा हुआ सुशील .....
- तुम नज़र भर ये
- तुम्हारी हरकतों से कोई तो ख़फ़ा होगा
- तू मेरे राह नहीं
- तेरी दुनिया नई नई है क्या
- तेरे बग़ैर अब कहीं
- दर्द का दर्द से जब रिश्ता बना लेता हूँ
- दायरे शक के रहा बस आइना इन दिनों
- देख दुनिया . . .
- देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है
- पास इतनी, अभी मैं फ़ुर्सत रखता हूँ
- बचे हुए कुछ लोग ....
- बस ख़्याल बुनता रहूँ
- बस ख़्याले बुनता रहूँ
- बादल मेरी छत को भिगोने नहीं आते
- बिना कुछ कहे सब अता हो गया
- बुनियाद में
- भरी जवानी में
- भरी महफ़िल में मैं सादगी को ढूँढ़ता रहा
- भरे ग़म के ये नज़ारे समझ नहीं आते
- मत पुकारो मुझे यों याद ख़ुदा आ जाए
- माकूल जवाब
- मिल रही है शिकस्त
- मुफ़्त चंदन
- मेरा वुजूद तुझसे भुलाया नहीं गया
- मेरे शहर में
- मेरे सामने आ के रोते हो क्यों
- मेरे हिस्से जब कभी शीशे का घर आता है
- मेरे क़द से . . .
- मैं सपनों का ताना बाना
- मौक़ा’-ए-वारदात पाया क्यों गया
- यूँ आप नेक-नीयत
- यूँ आशिक़ी में हज़ारों, ख़ामोशियाँ न होतीं
- यूँ भी कोई
- ये है निज़ाम तेरा
- ये ज़ख़्म मेरा
- रूठे से ख़ुदाओं को
- रोक लो उसे
- रोने की हर बात पे
- वही अपनापन ...
- वही बस्ती, वही टूटा खिलौना है
- वादों की रस्सी में तनाव आ गया है
- वो जो मोहब्बत की तक़दीर लिखता है
- वो परिंदे कहाँ गए
- शहर में ये कैसा धुँआ हो गया
- समझौते की कुछ सूरत देखो
- सहूलियत की ख़बर
- साथ मेरे हमसफ़र
- सफ़र में
- हथेली में सरसों कभी मत उगाना
- क़ौम की हवा
- ग़ौर से देख, चेहरा समझ
- ज़िद की बात नहीं
- ज़िन्दगी में अँधेरा . . .
- ज़िन्दगी में अन्धेरा
- ज़िन्दा है और . . .
- ज़ुर्म की यूँ दास्तां लिखना
- सजल
- नज़्म
- कविता
- गीत-नवगीत
- दोहे
-
- अफ़वाहों के पैर में
- चुनावी दोहे
- दोहे - सुशील यादव
- पहचान की लकीर
- प्रार्थना फूल
- माँ (सुशील यादव)
- लाचारी
- वर्तमान परिवेश में साहित्यकारों की भूमिका
- सामयिक दोहे – 001 – सुशील यादव
- सामयिक दोहे – 002 – सुशील यादव
- साल 20 वां फिर नहीं
- सुशील यादव – दोहे – 001
- सुशील यादव – दोहे – 002
- सुशील यादव – दोहे – 003
- सुशील यादव – दोहे – 004
- हास्य-व्यंग्य आलेख-कहानी
-
- अपना-अपना घोषणा पत्र
- अवसाद में मेरा टामी
- आँकड़े यमराज के
- आत्म चिंतन का दौर
- आसमान से गिरे...
- एक छद्म इंटरव्यू
- एक झोला छाप वार्ता......
- एक वाजिब किसान का इंटरव्यू
- गड़े मुर्दों की तलाश......
- चलो लोहा मनवायें
- जंगल विभाग
- जो ना समझे वो अनाड़ी है
- डार्विन का इंटरव्यू
- तुम किस खेत की मूली हो?
- तू काहे न धीर धरे ......।
- दाँत निपोरने की कला
- दिले नादां तुझे हुआ क्या है ...?
- दुलत्ती मारने के नियम
- नन्द लाल छेड़ गयो रे
- नया साल, अपना स्टाइल
- नास्त्रेदमस और मैं...
- निर्दलीय होने का सुख
- नज़र लागि राजा. . .
- पत्नी का अविश्वास प्रस्ताव
- पत्नी की मिडिल क्लास, "मंगल-परीक्षा"
- पीर पराई जान रे ..
- प्रभु मोरे अवगुण चित्त न धरो
- बदला... राजनीति में
- भरोसे का आदमी
- भावना को समझो
- मंगल ग्रह में पानी
- मेरी विकास यात्रा. . .
- रायता फैलाने वाले
- विलक्षण प्रतिभा के -लोकल- धनी
- सठियाये हुओं का बसंत
- सबको सन्मति दे भगवान
- साहब पॉज़िटिव हो गए
- सिंघम रिटर्न ५३ ....
- कविता-मुक्तक
- पुस्तक समीक्षा
- विडियो
-
- ऑडियो
-