सुशील यादव – दोहे – 002

15-10-2021

सुशील यादव – दोहे – 002

सुशील यादव (अंक: 191, अक्टूबर द्वितीय, 2021 में प्रकाशित)

1.
संकट में हो निकटता, दुःख के क्षण हो नेह 
ख़ुशी-ख़ुशी मैं त्याग दूँ, माटी माफ़िक देह॥ 
2. 
शाखों टूटा पात सा, गिरता पेड़ों फूल। 
मौसम पतझर सा हुआ, नेता का ऊसूल॥ 
3.
रिश्ते-नाते हैं कहाँ, छूट गया घर-बार। 
रोए क्यूँ वीरान मन, ऐसा क्यूँ है प्यार॥ 
4.
अच्छा मेरा भूलना, बुरे दिनों के ख़्वाब। 
तेरे जूड़े के लिए, चुन-चुन थका गुलाब॥ 
5.
अपने-अपनों ने लिया, मिल-जुल सबकुछ बाँट। 
एक करोना बच गया, बन के टाई नाट॥ 
6.
आओ हम मिल बाँध दें, अफ़वाहों के पैर। 
दो गज दूर चले नहीं, बिन मक़सद के बैर॥ 
7.
उलझे मन की बात ये, कभी न सुलझी डोर। 
रात करवटें ले कटी, झपकी आई भोर॥ 
8.
एक जुलाहा है चकित, देखा सूत कपास।  
तन से ताना क्या बुने, मन बाना विश्वास॥ 
9.
कथनी औ करनी कहीं, अंतर इतना जान।
मुँह चले नेतागिरी, साँस चले तो प्राण॥ 
10.
कर ले कुछ तो नेकियाँ, गर्व कुएँ में डाल।  
शायद दुर्दिन में यही, तेरा रखें ख़याल।। 
11.
जैसे-तैसे जारी हुआ, सही-ग़लत फ़रमान। 
कुछ की चल निकली तभी, बंद पड़ी दूकान॥ 
12.
कौन-कहाँ पीछे हुआ, चलते चलते साथ। 
घर गिरा घरौंदा कहाँ, क़िस्मत छोड़े हाथ॥ 
13.
क्या इलाज वो कर रहा, बन के वैद्य -हकीम। 
हम तो खा कर जी रहे, अभी करेला नीम॥ 
14.
क्या लेकर आए यहाँ, क्या जाओगे छोड़। 
मानवता ही धर्म है, सुख का सार निचोड़॥ 
15.
अगर खजांची बाप है, घर में है टकसाल। 
गली-गली में जीत का, सिक्का तभी उछाल। 
16.
जब तक आकर जायगा, एक बड़ा तूफ़ान। 
नींव हिला के देख लो, दहशत में इंसान॥ 
17.
जिसको हम समझा किये, अपने बहुत क़रीब॥ 
वो ही आख़िर बन गया, आड़े प्यार रक़ीब। 
18.
जिससे भी जैसे बने, ले झोली भर ज्ञान। 
आलोकित होता रहे, मग़ज़ रखा सामान॥ 
19.
जैसे लूटे ग़ज़नवी, गया खज़ाना हाथ। 
पीट-पीट के रह गया, समय-समय का माथ॥ 
20.
ढूँढ़ से मिलते नहीं, अब के वैद्य-हकीम। 
फ़ुर्सत की चादर बिछा, बैठे नीचे नीम॥ 

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