मन में उठा सवाल

01-10-2024

मन में उठा सवाल

सुशील यादव (अंक: 262, अक्टूबर प्रथम, 2024 में प्रकाशित)


वक़्त की नज़ाकत मन में उठता सवाल समझा करो
मुझसे भी होता गाहे बगाहे कमाल समझा करो
 
है ख़्वाहिशों की हरी मिर्च और धनिया पास भी तेरे
मुझ को पीसने के लिए हरदम पताल समझा करो
 
सब ने मारे हैं अपनी पसंद के चाँटे मगर तुम 
जनता के वुजूद को चूमो गाल समझा करो
 
गोया रहना था तुझको जिगर के क़रीब बन के क़रार 
कुछ मायूस हुए दिल को तंग हाल समझा करो
 
कौन बग़ावत को बंजर में बोता है इन दिनों
तुम इस चाह को मेरी सनक चाहे ख़्याल समझा करो
 
एक मैंं सम्हाले बैठा तुम्हारे रिचार्ज का ख़र्चा
मानो तो मैंं हूँ गुल्लक या टकसाल समझा करो
 
याद हैं पिछले बरस की बनारसी साड़ियों का गिफ़्ट
फट गया मेरी हैसियत का अब रुमाल समझा करो
 
नासमझ हो नादान हो, किसी की निगहबानी में रहो
किस नीयत बदलापुर मुश्किल कब बंगाल समझा करो
 
धनवानों की बस्ती में रहने का क़ायदा सीखो
जी भर गरज-बरस के उनको कंगाल समझा करो

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