देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है

15-03-2025

देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है

सुशील यादव (अंक: 273, मार्च द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

बहर:  हज़ज मुसम्मन अख़रब मकफ़ूफ़ महज़ूफ़
अरकान: मफ़ऊल मुफ़ाईलु मुफ़ाईलु फ़ऊलुन
तक़्तीअ:    221    1221    1221    122
 
देखा है मुहब्बत में, हया कुछ भी नहीं है
हम आग से खेले हैं, किया कुछ भी नहीं है
 
मुमकिन है किनारे में बिठा दोगे मुझे तुम
परवाह किसे है ये अदा कुछ भी नहीं है
 
बस्ती में अभी, बाँटने आया है वो चादर
हमने किसी लहज़े में, कहा कुछ भी नहीं है
 
गुज़री है कई रात बिना सोए हमारी
तेरी नमी यादों में, ज़िया कुछ भी नहीं है
 
आएंगे हमारी वो, हिफ़ाज़त के बहाने
उनको बता दो साफ, दिया कुछ भी नहीं है
 
सामान सभी बेच दिए ज़ेरे-ज़मानत
लोगों ने कहा और दग़ा कुछ भी नहीं है
 
इस मुल्क में आए दिनों होता है हंगामा
इस मुल्क कसैली सी हवा कुछ भी नहीं है

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