धीरे धीरे कह गया, कान सुना कुछ और।
ये बसंत की गूँज है, आम बाग़ में मौर॥
कौन यहाँ करने लगा, सपनों में मनुहार।
वेलेंटाइन का चढ़ा, ये मौसमी बुखार॥
संध्या होती आरती, सुबह जपूँ मैं नाम।
पत्थर पर्वत खोद दूँ, दूजा बोलो काम॥
चोरी से छिप कर मिले, कहाँ किया अपराध।
पूरी करते आपसी, वेलेंटाइन साध॥
माँग सको तो माँग लो, हमसे भी उपहार।
सोए पल में जाग लो, उतरे अगर ख़ुमार॥
इस मशाल का क्या करूँ, कहाँ लगा दूँ आग।
क्यों मन भीतर बैठता, डसने वाला नाग॥
उनके बस में नहीं, बस में करना आज।
पूँजीपतियों ख़ैर में, बना हुआ सरताज॥
जग ज़ाहिर तेवर दिखा, तेरा चारों ओर।
अब घर तेरा लूट के, क्या ले जाए चोर॥
आँख दिखा के लूटता, अंधों का हर माल।
देश की धोती बेचता, क़ीमत लगा रुमाल॥
जब तक पूरी हो नहीं, बचपन की कुछ साध।
कुछ गिनती में भूलना, प्रभु मेरे अपराध॥