पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
पौ फटने से ठीक पहले

पौ फटने से ठीक पहले
ऐसे ही अनेक अवसर
मैंने देखा तुम्हारा सपना
इससे पहले
मैं रण-क्षेत्र में था
और सूर्यास्त होते-होते मैंने एक पाँव से
अर्जुन का कुचल दिया सिर
और बेचारे गांडीव धरे रह गए! 
उसके मित्र को वापस बुलाया अपने राज्य, 
कुछ नई योजनाओं के साथ
बिखरे बालों वाली द्रौपदी
रक्ताक्त हृदय की प्रतीक्षा में
मगर दोस्त, 
क़िस्मत में लिखी हुई थी हमारी मुलाक़ात
किसी नुक्कड़ पर
पत्ते फड़फड़ाए, 
जैसे ही मैंने छोड़ी वह जगह
मेरा धनुष छीन लिया गया
कवच लूट लिया गया
कुंडल तोड़ दिए गए, 
कानों को लहूलुहान कर
मैं स्वयंवर से लौटा अपमानित होकर
पहले से ही बात तय थी
करिश्माइयों ने शहर को शुष्क छोड़ दिया
जहाँ अचानक गिरी तुम्हारी नज़र, 
मेरे अचानक पीछे हटने वाले
साहित्य के सैनिकों और उस घटनापूर्ण बैठक में
जकड़ लिया गया तुम्हें ज़ंजीर। 
आख़िरकार केवल तुम ही जानते हो
तुम्हारे अभिमानी पिता और उनकी उदारता
अज्ञान, अहंकार, विश्वासघात के पर्दे के विरुद्ध, 
मेरी बाँहों में तुम्हारा उछलना और
मधुर पुकार पिता के लिए!! 
दिखाई देने लगा
तुम्हारा चेहरा उदास, परेशान
अतीत के लंबे केश
आहें भरे तुम्हारे आँसू
सूर्य और प्रकृति की उच्च विरासत
पराक्रमी पिता के सामने तुम्हारी दलील
उस मिथकीय आकृति के साथ
हमेशा रहने के लिए! 
मगर स्वप्न-भंग
त्याग दिया मैंने
चुपचाप अकेले बिस्तर
मेरे सोने का व्यर्थ प्रयास
‘सपना सपना ही होता है’
असीम, अनंत, मधुरिम
मैं, रहस्यवादी
और पूर्ण रोमांटिक
जीतने के लिए हुआ मेरा जन्म, 
युद्ध से मेरा प्रेम
देखूँगा सत्य और उज्ज्वल सौंदर्य
भरोसा करूँगा बीते बचपन की
सुबह का, सपनों का और भाग्य पर
सपने भी सच होते हैं
हे मानव, पवित्र योद्धा
करो अनंत प्रतीक्षा, मेरे उद्धारक
सुनो, कुछ समय हृदय की झंकार
अपनी प्रकृति अनुरूप नहीं प्रेम
बल्कि होता है बहुत उदात्त। 

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