पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
 मृत्युंजय

 

जब मैं गया कुरुक्षेत्र
मेरे पास था बाँस का धनुष और मेरा करिश्मा
और तुम्हारे पास था तुम्हारा अलौकिक धनुष-बाण
जो दिया था तुम्हें किसी ने दान
मैंने परशुराम से की थी शिक्षा-ग्रहण
और तुमने ऐसे गुरु से, जो नहीं था स्वार्थहीन
मेरे शिक्षक ने दिया मुझे अभिशाप
मगर तुमने तो किया गुरु-हत्या का पाप
और कर दिया सिद्ध
शिष्य हो सकते हैं गुरुहंता
और मैंने गुरु के शाप को माना आशीर्वाद
तुमने तो रक्त-पिपासु वेश्या से किया पाणिग्रहण
और मैंने निभाई शक्तिशाली विशाल हृदय वाले पुरुष से मैत्री
मैंने स्वर्ग में सुना कि तुम्हारा मित्र बनाकर तुम्हें शक्तिहीन
कर तुम्हें नरपुंगव, ख़ुद चला गया वन
जहाँ जारा-शबर ने पैरों के तलवों में मारा तीर, 
सच में वह था जंगल में उस कायर मौत का हक़दार। 
आजीवन तुम बने रहे किसी बाहरी व्यक्ति के दास, 
जिसने वजह से हुई तुम्हारे पुत्र-प्रपोत्रों की निर्मम हत्या, 
फिर भी कहते रहे तुम उसे भगवान
मित्र नहीं होते एक दूसरे के ग़ुलाम
और नहीं होते पत्नियों को अनसुना करने वाले कम बहादुर
मुझे और मेरे ग़ुस्सैल कुरु को नहीं था अपने जीवन से लाड़-प्यार
जो थी तुम्हारी रक्तपिपासु पत्नी की चाह
महाभारत के युद्ध में तुमने सेवा की उसकी, 
जिसने यशोदा, राधा और वृंदावति को दिया धोखा? 
मैं सूर्य से पैदा हुआ हूँ, 
और तुम ऐसे देवता से, 
जो हमेशा संघर्षरत, भटकता इधर-उधर? 
इतिहास में मृत्युंजय की पत्नी नहीं होगी अमर, 
मगर मेरी महिमा और प्रेम का गौरव सदैव यादगार
आने वाली पीढ़ी तुम्हें कोसेगी और तुम्हारे प्रशंसक भी। 

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