पिताओं और पुत्रों की

पिताओं और पुत्रों की  (रचनाकार - प्रो. असीम पारही)

(अनुवादक: दिनेश कुमार माली )
मनु-पुत्र

 

मैं केवल मनुष्य-कृति
बचपन से ही अपनी निर्मिति
मिली पहली या दूसरी कक्षा तक पाश्चात्य-शिक्षा
क्योंकि मैं था हमेशा स्वतंत्र
शुरूआत से अंत तक
याद नहीं मुझे अब तक
यदि दूसरे अतीत के अंकगणित में कमज़ोर
मेरे प्रागैतिहासिक या उत्तर-वाद स्थल पर
नहीं थी कोई भी नारी कभी असहाय, 
नहीं अनसुनी या चेहरे पर भय
मैंने नहीं दिया कभी कोई प्रवचन, 
चाहे वह दलित, नारीवादी या धर्मनिरपेक्ष परिजन
या सामाजिक प्रवक्ता या धोखेबाज़ कार्यकर्ता
मुझे केवल याद है, एक अकेला नर, 
जातिवाद-सांप्रदायिकता से ले रहा था टक्कर
अकेले पूर्वाग्रही लैंगिक भेद मिटाने के ख़ातिर
पहले से ही, तुम्हारी तुष्टीकरण की राजनीति में संघर्षरत
जादू-टोने के पंजों के बीच उस आदमी की लड़ाई
एकतरफ़ा नहीं, संयोगवश वह विजयी
विद्रोही विजेता ने बनाए अपने नियम
नैतिक निस्संगता के अपने आदर्श संयम
सत्य-संगीत बना उसका उत्कृष्ट प्रेम
 
यही कारण, यही कारण
जीतना होता है निर्दोष पागलपन
क़ायम हूँ अपने इस कथन
मानवता के जय-जयकार के लिए मेरी लग्न, 
वास्तव में विजय होती है किसी का क्षुद्र अनुकरण
इस रंगमंच पर निःस्वार्थ, बेपरवाह युद्ध और बलिदान
 
इसलिए मनु-पुत्र, 
शान्ति से रहो, भूल जाओ वह प्रहर
कि कभी खड़ा था बाहर
वह जन्मा अजर-अमर
जन्म, राष्ट्रीयता या धर्म से परे
परिसर के इतिहास से परे
और उनके असहिष्णु निंदक, नैतिक विचारधारा से प्रेरित
संकेंद्रित भाव से शिक्षाविदों को करते हैं परिभाषित? 
 
उपदेश देते रहो, कैसे लाए देश में प्रपंच-प्रलय? 
क्योंकि तुमने नहीं देखा विभाजन का समय
दानवी वामपंथी विचारधारा बनी रहे आबाद
राष्ट्र, जाति और लिंग-भेद से फैलाओ उन्माद
 
मैं और मेरी मानवतावादी प्रतियोगिता
अकेले छोड़कर हो जाओ आज़ाद, 
बनाए रखो अपना ऊँचा झण्डा आबाद
न क्षमा, न दया, न प्रेम, न मनुष्यता
 
जब तक मेरी आत्मा को मिल न जाता
स्वर्गिक प्रसाद। 

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