डॉ. संजीव कुमार के कविता-संग्रह ‘कोणार्क’ के बहाने

01-06-2023

डॉ. संजीव कुमार के कविता-संग्रह ‘कोणार्क’ के बहाने

दिनेश कुमार माली (अंक: 230, जून प्रथम, 2023 में प्रकाशित)

विश्व-सभ्यता में ऐसा समय था, जब सूर्य को सबसे बड़ा देवता माना जाता था। वेदों के प्रथम मंत्र ‘गायत्री मंत्र’ में सवितु शब्द सूर्य का पर्यायवाची है। विश्व के अनेक देशों में सूर्य-मदिर थे, कभी परसिया में सूर्य मंदिर था मिहिर नाम से, जब वहाँ के लोग भारत आए तो उन्होंने पंजाब के मुल्तान में अपने कुलदेवता का वैसा ही सूर्य-मंदिर बनाया, जिसका चीनी परिव्राजक ह्वेनसांग ने अपने भारत की यात्रा-संस्मरण में ज़िक्र किया है, इस मंदिर को शायद बाद में औरंगजेब ने तोड़ दिया था। उसी तरह ओड़िशा में ‘कोणार्क’ का सूर्य-मंदिर विश्व-विख्यात है, भले ही वर्तमान में जीर्ण-शीर्ण अवस्था में क्यों न हो। कहते हैं कि कोणार्क शब्द की उत्पत्ति अर्क क्षेत्र की अधिष्ठात्री देवी कोणार्का के नाम पर हुई, जबकि कोणार्क का संधि विच्छेद करने पर बनता है, कोण+अर्क। अर्क का अर्थ होता है सूर्य तो कोणार्क का अर्थ हुआ सूर्य का कोण, इसी कोण पर सूरज की पहली किरण पूर्वाशा में गिरती हैं। विदेशी लोग इस मंदिर को ब्लैक पैगोडा कहते हैं तो जगन्नाथ मंदिर को व्हाइट पैगोडा। जयशंकर प्रसाद जी ने अपनी कविता ‘भारत महिमा’ में लिखा है:

हिमालय के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार
उषा ने हँस अभिनंदन किया और पहनाया हीरक हार

अगर जयशंकर प्रसाद जी कोणार्क में आँगन में आते तो उनके मुख से कविता की ये पंक्तियाँ ऐसे बदल जाती:

कोणार्क के आँगन में उसे प्रथम किरणों का दे उपहार

संप्रति मुझे 1993 से 2023 तक ओड़िशा में रहते हुए तीन दशक पूरे हो गए। इस वजह से सूर्य की प्रथम किरणों की इस उपहार स्थली ‘कोणार्क’ देखने का अनेक बार अवसर मिला है, कम से कम दस बार तो अवश्य ही, अपने परिजनों के साथ, अपने सगे-संबंधियों के साथ और अपने मित्रों और सहयोगियों के साथ। जितनी बार वहाँ जाता था, उतने ही नए-नए कन्सेप्ट साथ लेकर घर आता था। कपिल संहिता, मदलापाँजी, प्राची माहात्म्य, शांब पुराण और भविष्य पुराण सभी के उज्ज्वल पन्नों में कोणार्क का नाम स्वर्ण अक्षरों में अंकित है। ओड़िया साहित्य में अभिरुचि होने के कारण प्रख्यात ओड़िया कवि सीताकांत महापात्र की कविता ‘ओड़िशा’ की ये पंक्तियाँ शुरू से ही मुझे हमेशा से आकर्षित करती रही हैं:

“अपने साथ ले जाता हूँ
भग्न-मंदिर की भित्तियों पर
समय की अनदेखी कर
सबकी नज़रों से बचते-बचाते
अपलक दूर निहारती प्रेमलीला के रस में
डूबी भृत्य नायिकाएँ;”

जब मुझे इन पंक्तियों का गूढ़ार्थ पता चला कि ये पंक्तियाँ कोणार्क के भग्न-मंदिर का प्रसंग है तो मुझे बार-बार वह मंदिर अपनी तरफ़ खींचने लगा। इसी तरह कोणार्क को केवल पिकनिक स्पॉट के रूप में देखने वालों पर करारा व्यंग्य करती हुई भानुजी राव की कविता ‘कोणार्क’ पढ़ी तो मन में एक ही पंक्ति बार-बार उभरकर तरोताज़ा हो जाती थी, वह थी “क्या तुमने कोणार्क देखा है?”

“हम शहरी लोग
निकले देखने को कोणार्क!
गाड़ी से उड़ाते लाल धूल के गुबार
मुँह में चुरूट, कंधे पर थैली
बैठे चिपकाकर कुर्ते और चोली।

हम भद्र जन
पहने हुए सोने के बटन
साथ में ताश, ग्रामोफोन
और पास बोतल में रम

शहर की सीमा से दूर अँधेरे में
एक ग्राम
पता नहीं उसका नाम
वहाँ पर ठहरे हम
नारियल पानी पीने की हुई इच्छा भारी
सामने दिखाई पड़ी एक किशोरी?
देख रही शांत-भाव से वह गोरी
गाय की तरह भोली

चुपचाप बैठा मैं
ध्यान-मग्न
तभी दिखाया संगिनी ने
बाँस की झाड़ियों के सामने कबूतर
कहीं धान के खेत
कहीं झाऊँ और बादाम के वन
किसी के बरामदे में लटकती लौकी
ये सब देखा हमने
सूरज रहते-रहते।

उसके बाद हो गई रात
चमकने लगे पोलांग पेड़ के पात
ऊपर चाँद की चाँदनी
नीचे विस्तीर्ण घास की चटाइयाँ
जिस पर बादलों के जादू से
कई छोटी कई बड़ी परछाइयाँ।

ये सब देखा हमने
धूल और चुरूट के धुँए में
“क्या तुमने कोणार्क देखा है?”
लाल होंठों वाली लड़की ने पूछा
“अंगड़ाई लेती कन्या की छाती
वास्तव में पत्थर से गठित?”
दाँत दबाकर हँसा वह
अपनी बहुत क़ीमती हँसी

उसके बाद पार किये हमने
अनेक झाऊँ-जंगल
अनेक रेत के टीले
गोप गाँव . . . निमापाड़ा
सोचा हमने बहुत बड़े होंगे कोणार्क के हाथी
और घोड़े।

सोते-सोते सोच रहा था मैं
भूल जाऊँगा आगे और पीछे
आँखें तरेरते, भृकुटी सिकोड़ते
थोड़ा हँसते हुए पूछा,
उस लड़की ने मुझसे
“क्या तुमने कोणार्क देखा है?”

कोणार्क पर कविताओं के बाद ज्ञानपीठ से पुरस्कृत प्रतिभा राय का बहुचर्चित और ओड़िशा साहित्य अकादमी से पुरस्कृत ओड़िया उपन्यास ‘शिलापद्म’ (जिसका हिन्दी अनुवाद डॉ. शंकर लाल पुरोहित ने ‘कोणार्क’ और अंग्रेज़ी अनुवाद मोनालिसा जेना ने ‘सिटाडेल ऑफ़ लव’ के नाम से किया है।) पढ़ने का लोभ रोक नहीं पाया, जिसमें उन्होंने अपनी भूमिका में भी भानू जी राव की कविता की तरह अपनी मनोव्यथा प्रस्तुत की है:

“परंतु आज जो कोणार्क देखने आते हैं, उनमें धर्म भावना या कलानुराग से बढ़कर आमोद-प्रमोद, मनोरंजन या मौज-मस्ती की वासना अधिक मुखर होती है। वे आज कोणार्क को तीर्थ या कला के दर्शन का पीठ नहीं मानते, बस आमोद-प्रमोद की जगह मानते है—पिकनिक स्पॉट के स्तर पर। कोणार्क मंदिर जीवन चक्र की एक चित्ताकर्षक चित्रशाला होते हुए भी यहाँ खुदी सृष्टिचक्र की प्रतीक शृंगार रस संबलित मिथुन मूर्तियाँ ही ज़्यादातर लोगों के आकर्षण का प्रधान केन्द्र रही हैं। कुछ विद्वान तो कहते हैं कि मिथुन मूर्तियाँ कोणार्क कला का कलंक है। कुछ इन दृश्यों के प्रति मन में वितृष्णा भाव रखते हैं और कुछ तो मंदिर निर्माता, तत्कालीन सामाजिक जीवन और कलिंग शिल्पियों की विचारधारा अतिनिम्न कहने से भी नहीं चूकते।”

चूँकि कोणार्क मेरे लिए अभी भी एक अनसुलझी पहेली है, इस वजह से कोणार्क पर जो भी पाठ्य-सामग्री मिलती है, मैं बड़े चाव से पढ़ता हूँ। वर्तमान में आईआईएम, सम्बलपुर के प्रोफ़ेसर सुजीत पृसेठ द्वारा संपादित ओड़िशा पर्व में देवल मित्रा का में प्रकाशित अंग्रेज़ी आलेख ‘कोणार्क: लिजेंड एंड हिस्ट्री’, मुल्क राज आनंद का ‘होमेज टू कोणार्क’, एलिस बोनर का ‘कॉन्सट्रक्शन ऑफ़ कोणार्क’ और इसी तरह ओड़िया में प्रकाशित आलेख पंडित कृपासिंधु मिश्र के आलेख ‘कोणार्क किंवन्दती’, ‘कोणार्कर पतन’, ‘कोणार्करे लूहार व्यवहार’ मनोज दास का ‘कोणार्क-संधान’ और अनिल डे का ‘कोणार्क: एक दार्शनिक चिंतन’ आदि पढ़ने का अवसर मिला है। जिनका प्रयोग मैंने डॉ. संजीव कुमार का कविता-संग्रह ‘कोणार्क: एक प्रेम मंदिर’ पर अपनी बात रखने के बहाने कर रहा हूँ क्योंकि एक साथ असंख्य तरंगें मेरे मन-मस्तिष्क पर आघात कर रही हैं। हो सकता है, कवि डॉ. संजीव कुमार के सजीव भावों का ऊर्जा-स्तर मेरे हृदय को आंदोलित कर रहा हो और झकझोर रहा हो, उनकी सूक्ष्म निरीक्षण शक्ति और नैसर्गिक कल्पना की टोह लेने के लिए। ब्रिटिश साहित्य आलोचक कॉलरिज के अनुसार कल्पना शक्ति ही लेखन का मूलाधार है तो फ्रायड के अनुसार काम मनोविज्ञान और टी.एस. इलियट के अनुसार हमारी परम्पराएँ। कोणार्क मंदिर में तो असंख्य परम्पराएँ है, काम का मनोविज्ञान भी है तो कल्पना-शक्ति की दीर्घ उड़ान भी। नग्न कामुक मूर्तियाँ भी हैं, और असंख्य फ़ैंटेसियाँ भी। कुल मिलाकर कोणार्क मंदिर का परिवेश आपके अंदर सोए हुए लेखक, कवि, समालोचक, गीतकार, दार्शनिक किसी को भी जगा सकता है, बस आवश्यकता है तो किसी उद्दीपण की, किसी उत्प्ररेक की। कौन-सा पल आपके जीवन को किस मोड़ पर ले जाएगा, आपको भी मालूम नहीं चलेगा, आपकी आस्था-विश्वास सूर्य देव का आर्शीवाद या अभिशाप बनकर उभरेगा, यह सब आपके भाग्य का खेल होगा या फिर प्रारब्ध। यह सर्वविदित है कि साहित्य-सर्जन तो एक धुन होती है, सनक होती है, पागलपन होता है, आपके भीतर उठ रही अभिव्यक्ति की ज्वालामुखी फूटने से पहले अपने रास्तों का निर्धारण स्वयं करती है, इस वजह से डॉ. संजीव कुमार अमेरिका से दो बार कोणार्क आए, कोणार्क के पत्थरों पर लिखे महाकाव्य को अच्छे से पढ़कर अपनी भाषा में रूपांतरित करने के लिए।

कोणार्क पहुँचने का रास्ता काफ़ी विस्तृत है, दोनों तरफ़ काजू और झाऊँ वन, पोलांग के चमकीले पेड़, बाँस की झाड़ियाँ। शाम के समय सूर्य की लालिमा यह दिखाती है कि कुछ ही क्षणों में उसका क्षेत्र मद्धिम-मद्धिम रोशनी वाले बल्बों से जगमगाने लगेगा और सूर्य देव अपने कार्य से मुक्त होकर विश्राम लेने जाएँगे। सामने चंद्रभागा नदी, जहाँ सूर्य की प्रथम किरण गिरती है और चारों तरफ़ बिखेर देती है लोक-कथाएँ ही लोक-कथाएँ, “कथासरित सागर’ की तरह।

प्रसिद्ध ओड़िया कवि राधानाथ राय ने एक काव्य लिखा है—‘चंद्रभागा‘ काव्य। जिसके अनुसार कभी इस इलाक़े में सुमन्यु ऋषि तपस्या किया करते थे, उनकी एक सुंदर लड़की की अपूर्व सुंदरता को देखकर सूर्य का मन डोल गया। यह कथानक यूरोपियन मिथक अपोलो और डाफने से लिया गया है। जगन्नाथ के पुष्पाभिषेक में बहुत सारे देवी-देवता स्वर्ग से आमंत्रित किए गए थे। संबलेश्वरी से समलाई, चिलिका लेक से कालिजाई इस तरह कई देवी-देवता पधारे थे। सूरज भी था और कामदेव थी। दोनों में कुछ अनबन हो गई, इसलिए मज़ा चखाने के लिए कामदेव ने सूरज पर काम-वासना का तीर चला दिया और उसका विपरीत तीर चंद्रावती पर। सूरज से बचने के लिए चंद्रावती ने नदी में कूदकर आत्महत्या कर ली। तब से इस नदी का नाम पड़ा—‘चंद्रभागा’। जब सुमन्यु ऋषि को ध्यान में अपनी बेटी की आत्महत्या का कारण पता चला तो उसने सूर्य को अभिशाप दे दिया कि इस क्षेत्र में कभी भी तेरा मंदिर नहीं बनेगा और नहीं तेरा यहाँ पूजा होगी। उस अभिशाप से कोणार्क में न तो सूर्य मंदिर बन पाया और न ही वहाँ उसकी पूजा होती है। चंद्रभागा नाम भले ही रहा हो, मगर थी तो अभागिन ही, तभी तो अहिल्या को दूषित करने वाले चंद्रमा की तरह उसके पीछे सूरज लग गया। भारत में देवी-देवता भी बड़े ख़तरनाक होते हैं, अविश्वसनीय होते हैं, कब किसे कौन पसंद आ जाए, कह नहीं सकते और वे अपना रूप बदलकर कब किसका शीलहरण कर लें। अगर यह असत्य है तो राधानाथ राय जैसे कल्पनाशील कवि अपनी फ़ैंटेसियों में देवी-देवता, ग्रह-उपग्रह आदि को भी इस तरह ले आते है, मानों घटना मिथकीय, लोक-कथा न होकर सत्य लगने लगती है। शायद कोणार्क के सूर्य मंदिर के भग्न होने का राज़ खोजने के लिए उन्होंने अपने काव्य की अंतर्वस्तु में चंद्रभागा नदी का मानवीकरण तो नहीं कर लिया?

चंद्रभागा से थोड़ा-सा आगे जाने पर एक राजकीय विश्रामालय आता है और कुछ सरकारी कार्यालय, उसके थोड़ा-सा आगे यूनेस्को द्वारा मान्य विश्व धरोहर कोणार्क मंदिर। आज का कोणार्क मंदिर पुराने कोणार्क मंदिर से पूरी तरह अलग है, अलग बस स्टेशन है, टैक्सी स्टैंड है, लाइट-साउंड शो की व्यवस्था है, प्रेक्षागृह है—जहाँ ऑडियो-विजुअल फ़िल्म दिखाई जाती है और कोणार्क का अर्काइव-म्यूज़ियम भी। लाइट-साउंड शो भी देखा जा सकता है। कोणार्क देखने से पहले उसकी पौराणिक गाथा पर एक बार दृष्टि अवश्य डालें:

“कृष्ण के पुत्र शांब को दुर्वासा मुनि का अभिशाप लगा था इसलिए उन्हें कोढ़ हो गया था। उन्होंने ऋषियों के वचनानुसार इस अर्क क्षेत्र में आकर सूर्य की पूजा-तपस्या की और रोग मुक्त हो गए। द्वापर में यह स्थान धार्मिक स्थल के रूप में मशहूर हुआ है। इस अर्क क्षेत्र के पुराणों में कई नाम है जैसे-कोणादित्य, सूर्यक्षेत्र, मित्रवन, मैत्रेयवन, रवि क्षेत्र आदि।”

वर्तमान भग्न कोणार्क भी तो स्थापत्य-कला का हिमालय ही है। इस संदर्भ में एक लोक-कथा प्रचलित है:

“एक राजा था, लांगुला नरसिंह देव। शायद 1200-1300 की बात होगी। वह सूर्य मंदिर बनाना चाहते थे, क्योंकि सूर्यदेव की कृपा से उन्हें पुत्र प्राप्ति हुई थी। यही ही नहीं, कोई-कोई तो कहते हैं कि राजा नरसिंह देव का शिशुपालगढ़ की राजकुमारी पद्मा से प्रेम सम्बन्ध था, मगर राजा का पंजाब राजकुमारी से विवाह होने के बाद पद्मावती विरह-ज्वाला सह न सकी और अपनी देह को काल के हाथों में सौंप दिया। राजा ने ढूँढ़ते हुए उसके शव को वहाँ पाया था। उन्होंने अपनी प्रेमिका की याद में यहाँ कोणार्क मंदिर बनाया। इसलिए इस क्षेत्र को ‘पद्म क्षेत्र‘ भी कहते है। जहाँ यह सूर्य मंदिर बना है, वहाँ कभी बहुत बड़ा समुद्र हुआ करता था। उन्होंने मंदिर निर्माण का कार्य अपने प्रधानमंत्री सिबाई सांतरा को सौंपा। उसने पहले-पहले समुद्र के बीचों-बीच पत्थर डलवाना शुरू किए, मगर पानी के बहाव में पत्थर इधर-उधर हो जाते थे और मंदिर बनाने का कठोर धरातल उन्हें नहीं मिल पा रहा था। दुखी मन से जब वह घर की ओर लौट रहे थे, काफ़ी देर हो चुकी थी, जंगल का रास्ता था तो उसने एक बुढ़िया के घर में शरण ली। उस बुढ़िया ने उन्हें संभ्रात घर का अतिथि समझकर गरम-गरम जाऊँ (एक प्रकार की खीर) बनाकर परोसी। भूख से बेहाल होने के कारण सिबाई सांतरा ने थाली के बीचों-बीच हाथ डालकर जाऊँ खाना शुरू किया तो उसमें हाथ जल गए। उफ़! की आवाज़ सुनकर बुढ़िया ने उसकी तरफ़ देखा और कहा—तुम भी तो सिबाई सांतरा की तरह काम कर रहे हो तो हाथ नहीं जलेगा तो और क्या होगा? बीचों-बीच हाथ न डालकर अगर किनारे से तुम खीर खाना शुरू करते तो तुम्हारे ये नरम कोमल हाथ नहीं जलते। बुढ़िया सिबाई सांतरा को नहीं जानती थी, मगर उसे एक बहुत बड़ा सबक़ मिल गया और उसने समुद्र को किनारे से पाटने का आदेश दिया, अपने कामगारों को। धीरे-धीरे उसे मंदिर बनाने की यह ज़मीन मिल गई।”

ऐसी एक लोककथा तो राजस्थानी लोक-साहित्य में भी आती है, जो निम्न प्रकार हैँ:

“मेवाड़ के एक राजा थे मोकल। उनके परिवार में आपसी कलह चल रही थी। पड़ोसी राजा चूड़ा ने उनके वंशज रणमल को मौत के घाट उतार दिया, यह देखकर राजकुमार जोधा, (जिन्होंने राजस्थान में जोधपुर की स्थापना की थी) मारवाड़ प्रांत में सैन्य-बल को संगठित कर चूड़ा के ख़िलाफ़ युद्ध की तैयारी करने लगे, मगर हर युद्ध में उन्हें मुँह की खानी पड़ रही थी। रात के समय जोधा ने किसी बुढ़िया की झोंपड़ी में शरण ली और बुढ़िया ने उन्हें खीर परोसी। चेहरे के हाव-भाव और उदासी देखकर बुढ़िया से रहा नहीं गया और पूछा, “बेटा! किस बात की चिंता कर रहे हो। पहले खाना खा लो, फिर थोड़ा विश्राम कर लेना।”

बुढ़िया को उस राजकुमार के बारे में बिल्कुल पता नहीं था। भूखे राजकुमार ने थाली में परोसी गई गरम खीर को बीच में से खाना शुरू किया तो उसके हाथ जल गए और कहने लगा, “उफ़्फ! बहुत गरम है खीर।”

बुढ़िया ने यह अपनी आँखों से देख लिया था इसलिए कहने लगी, “बेटा, तुम तो राव जोधा की तरह कर रहे हो। वह भी अपने प्रांत के किनारे वाले गाँवों को न जीतकर सीधा बीचों-बीच बसी हुई बस्तियों पर आक्रमण करता है, इसलिए वह चारों तरफ़ घिर जाता है और उसे मुँह की खानी पड़ती है। तुम भी तो ऐसा ही कर रहे हो, किनारे-किनारे से क्यों नहीं खाते!”

राव जोधा और सिबाई सांतरा की लोक-कथाओं अद्भुत सामंजस्य है। एक राजस्थान की लोक-कथा तो दूसरी ओड़िशा की। जब सिबाई सांतरा को कठोर धरातल मिल गया तो बारह सौ कारीगरों में जिसका मुखिया विशु महाराणा ने बारह साल के भीतर यह मंदिर तैयार किया—224 फुट ऊँचा। इस मंदिर में रस है, भाव है, ध्वनि है और अगर सौ माइकल एंजेलो की दो-तीन पीढ़ियाँ भी कोशिश करें तो कोणार्क जैसी स्थापत्य कला नहीं बना पाएगी। ग्रीस के पार्थनियॉन, प्राचीन मिस्र की नुबिया आदि कलाकृतियाँ भी कोणार्क के सामने पानी भरते नज़र आती हैं। डॉ. संजीव कुमार के कविता-संग्रह की कविता-72 की कुछ पंक्तियाँ देखें:

“बारह वर्षों की
दीर्घकालीन साधना में
क्या अनुभव हुए विशु!
कैसे हुआ इतना बड़ा काम?”
“हाँ, इस अप्रतिम मंदिर का
निर्माण एवं पुनर्जीवन की
साधना है।
इसमें पत्थरों से घिरा आदमी
पत्थर का हो जाता है
यह अपनी योजना
एवं शिल्प में
एक नवीन प्रयोग था
और पर इन बारह सौ शिल्पियों
के ऊपर समय की सीमा का
एक भारी दबाव भी।”
“हमने दिन को दिन
और रात को रात
नहीं समझा
और कोणार्क
कल्पना से परे
बनकर मूर्त हो गया।”

आज सच में हम कोणार्क नहीं देख रहे है, हम केवल इसके भग्नावशेष और खंडहरों को देखकर अनुमान लगा रहे हैं कि कभी इमारत कितनी बुलंद रही होगी! अगर आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस अपने इनपुट लेकर कोणार्क की कुछ पुरानी तस्वीरें तैयार करें तो बड़े-बड़े हाथी, घोड़े, और शेर, लोहे के बड़े-बड़े पिल्लर, सतरंगी सूर्य किरणें और मैथुन मूर्तियों से सजा हुआ चौबीस पहियों यानी बारह ऐक्सल वाला सात घोड़ों से जूता हुआ यह विशाल रथ किसी हवाई जहाज़ की तरह आकाश में उड़ान भरने वाला नज़र आएगा, मगर अभी तो ऐसा लग रहा है जैसे किसी यांत्रिक गड़बड़ी के कारण जिस हवाई जहाज़ ख़राब होकर नीचे गिरकर विदीर्ण हो जाता है, वैसे ही यह विशाल रथ भी बिखरा-बिखरा, टूटा-टूटा, उदास-हताश-निराश नज़र आ रहा है। अब परिवेश में वह प्रफुल्लता नहीं, वह उमंग नहीं, वह संगीत लहरियाँ नहीं, वह रमणीय क्रीड़ा-स्थल का रोमांच नहीं। केवल याद दिलाते हैं ये खंडहर कि कोणार्क पूर्वजों द्वारा हमारे छोड़ी गई ऐसी धरोहर है जिस पर सारा विश्व गर्व करता है। इस मंदिर की डिज़ाइन मयूर के ‘सूर्य शतक’ पर आधारित है। चौबीस पहिए यानी 12 एक्सल मतलब 12 महीने, आधा महीना कृष्ण पक्ष और आधा महीना शुक्ल पक्ष। सात घोड़े मतलब सात वार या सूर्य की सात किरणें वायलेट, इंडिगो, ब्लू, ग्रीन यैलो, ऑरेंज एवं रेड, जिसे भौतिक विज्ञान में VIBGYOR भी कहते हैं। इस संदर्भ में कवि की कविता-73 की पंक्तियाँ देखें:

“कार्य योजना में
मेरी कल्पना थी कि
हम सूर्य को धरती पर उतार लायेंगे
उसकी एक एक रश्मि
भर देगी कोणार्क का प्रांगण
प्रकाश और ऊर्जा से अपने
चौबीस चक्रों वाले विशाल रथ सहित
जो सात अश्वों की ऊर्जा से चलित होगा।
पूर्व दिशा के आकाश से
जब सूर्य रश्मियाँ धरती पर उतरेंगी
तो जाज्वल्यमान होगा
सारा उत्कल प्रदेश।
वह दिन के चौबीस घंटों की
अवधि में चालित होगा एक एक चक्र पर
और उनके युगल चक्र इंगित करते है।
बारह मासिक और उनके दो पक्ष
शुक्ल पक्ष एवं कृष्ण पक्ष।
जो स्पष्ट करेगा दिन की कालवधि
और सातो अश्व दृष्टिमान होंगे
सप्ताह के सात दिनों के लिये।”

सात घोड़ों का नाम संस्कृत साहित्य में है—गायत्री, वृहति, उष्णीह, जगति, त्रिस्तूभ, अनुष्टुप और पंक्ति है। पूर्व दिशा में यह रथ उदय होकर धीरे-धीरे अंतरिक्ष में परिक्रमा करने लगेगा, अँधेरे को भगाने में दो देवियाँ इस कार्य में मदद करेंगी, उषा और प्रत्युषा। इस गहन अध्ययन को भी कवि डॉ. संजीव कुमार ने कविता-74 की पंक्तियों में प्रस्तुत किया है:

“मैंने सोचा था कि
वैदिक स्थापत्य कला में
सूर्य अपने रथ पर सवार,
लेकर हाथों में एक कमान
करेंगे यात्रा।
सारथी अरुण द्वारा चालित
सात अश्वों से सज्जित रथ
जो है नामित
गायत्री
बृहति
उष्मीह
जगति
त्रिष्टुम
अनुष्टुम
एवं पंक्ति,
और उसका स्वागत करती
एवं रश्मि सर सन्धान करतीं
देवि ऊषा एव प्रत्यूषा
जिनसे दूर होता है
अंधकार।”

उपर्युक्त कविताओं से यह स्पष्ट होता है कि स्थापत्य-कला, ओड़िया भाषा में भास्कर्य कह लो, में भी सिंबोलिज़्म यानी प्रतीकों का स्थान है। कला और विज्ञान तो आपस में एक-दूसरे से पूरी तरह जुड़े हुए है। क्या प्रतीक भाषा में ही होंगे, दूसरी जगह नहीं? ख़ैर, मंदिर तो बन गया, मगर कलश-स्थापना का काम उनकी टीम नहीं कर पाई। उसी दौरान विशु महाराणा को मिलने के लिए उनका, बारह वर्षीय पुत्र धम्मपद मिलने आया और सभी कारीगरों को हताश-निराश-उदास अवस्था में देखकर दुखी स्वर में कहने लगा, “आप सभी इतने दुखी क्यों हो?” जब उन्होंने अपनी समस्या सामने रखी तो धम्मपद ने हँसते हुए कहा, “यह काम तो मेरे बाएँ हाथ का खेल है।” और अपने चुंबक और कलश ले जाकर सही जगह पर स्थापित कर लिया। अब बात ठहरी अस्मिता की, जब बारह सौ कारीगर जिस काम को नहीं कर सके, एक छोटे से बारह वर्षीय बालक ने कर दिया। तब राजा को क्या जवाब दिया जाएगा? राजा बच्चे को पुरस्कृत करेगा और बारह सौ कारीगरों के सिर धड़ से अलग। इस अवस्था में क्या किया जा सकता है? लड़के को या तो दूर भेज दिया जाए या फिर . . .? जब धम्मपद ने उनकी आशंका भरी बातें सुनीं तो स्वयं मंदिर के चूल पर चढ़कर नीचे समुद्र में कूदकर आत्माहत्या कर ली। मंदिर और आत्महत्या? यह भी तो पाप है। उसके बाद वह मंदिर अपने आप गिरना शुरू हो गया और आज जो मंदिर आप देखकर आए हैं, वह उसी का भग्नावशेष हैं। यह है कोणार्क की दुखद कहानी, जो मैंने सीताकांत जी की कविता ‘ओड़िशा’ में पढ़ी थी, उन पक्तियों को देखें:

“अपने साथ ले जाता हूँ
अँधियारे साँझ में पिता को पहली बार मिलने आए किशोर,
कलश लगाने के बाद जिसके मंदिर के चूल से
कूदकर सागर में आत्म-विसर्जन कर देने से
उत्पन्न हुए अंतहीन करुण शोक लहर का वह प्रहर;”

सीताकान्त जी की तरह ऐसी ही परिकल्पना कवि डॉ. संजीव कुमार की है, जो उनकी कविता-93 की निम्न पंक्तियों से प्रदर्शित होती हैं:

“सारी बातें सोचकर
उस तरुण शिल्पी ने
किया एक कठिन फ़ैसला
और वह शीर्ष कर खड़ा होकर
करने लगा
सूर्य की उपासना
और अगले क्षण ही
उसने लगा दी छलाँग
और किया मृत्यु का वरण।”

क्या कोणार्क के तत्कालीन राजाओं के मन में प्रेम-भावना बिल्कुल भी नहीं होती थी। बारह सौ मिस्त्रियों का शोषण भी किया, उनकी जवानी छीन ली, मंदिर के निर्माण में, और मिला क्या? नरसिंह देव का तो नाम रह गया अभी तक, मगर नींव की ईंट बने कारीगर? कलश स्थापित नहीं होने के बाद भी राजा ने अपने आपको कँगूरे के रूप में स्थापित कर ही लिया। ये सारे विचार मेरे मन के किसी कोने में विषैले साँप की तरह आज भी फुफकार रहे हैं। लेकिन मेरा मानना है कि बारह साल लगातार काम करने के कारण कोणार्क के 1200 कारीगर कमज़ोर और शिथिल हो गए होंगे, कुछ बीमार भी हो गए होंगे, कुछ मर भी गए होंगे। इस वजह बारह साल का लड़का निश्चित ही स्फूर्तिवान होगा, इस वजह से सत्तर-अस्सी मीटर ऊँचे मंदिर पर आसानी से चढ़ गया होगा, मंदिर के पत्थरों पर सँभाल-सँभालकर पाँव रखते हुए और अपने हाथों से पत्थरों के बाहर निकले नुकीले हिस्सों को पकड़ते हुए। कहीं-न-कहीं भूलचूक से हाथ छूट गया होगा तो वह काफ़ी ऊँचाई से नीचे गिरकर दम तोड़ दिया होगा। अब कोणार्क की तरह धर्मपद को महिमा-मंडित करने के लिए तत्कालीन चारणों, भाटों और राजदरबारी कवियों ने अपने काव्य-कविताओं में त्रासदी लाने के लिए ‘आत्म-हत्या’ और ‘आत्म-विसर्जन’ जैसे प्रसंग जोड़ दिए होंगे। धम्मपद की आत्महत्या से पाठकों की मन में करुणा और दया के भाव स्पष्ट झलकने लगेंगे। और माहौल कुछ ग़मगीन-सा लगेगा। इतनी बड़ी जीती-जागती ऐतिहासिक धरोहर, लाखों-करोड़ों का ख़र्च, फिर भी प्रोजेक्ट असफल, केवल एक आत्महत्या के कारण। कवि संजीव कुमार के अनुसार अपने बेटे के पार्थिव शरीर से लिपटकर शायद तभी विशु ने चुंबक को हिलाकर उसी समय मंदिर को नष्ट कर दिया। इस तरह उन्होंने अपनी कविता में मौलिकता का पुट देने की चेष्टा की है। उनकी कविता-97 की पंक्तियाँ इसे उजागर करती है:

“अचानक उठ खड़े हुआ विशु
चल पड़े मंदिर की ओर
जैसे सूर्य देव से
कहना हो कुछ।
किन्तु आने लगी
हथौड़ा चलने की आवाज़ें
कि जैसे महा शिल्पी का मोहभंग
हो गया हो
और उतर आया हो
वह विध्वंस पर।
बस चुम्बक के
हिलते ही हो गई
मूर्ति धराशायी
एक बड़ी ध्वनि को साथ
और विशु
हो गये समाधिस्थ
उसी कल्पना की
सृष्टि में॥”

मैं कवि की इस अवधारणा से बिल्कुल सहमत नहीं हूँ क्योंकि उन्होंने कविता में किंवदंतियों का आधार लिया है, जबकि ऐतिहासिक पक्ष की अनदेखी की है। कभी इस धरती पर महाप्रभु चैतन्य महाप्रभु (1486-1535) ने पाँव रखे थे तो कभी अबुल फजल (1556-1605) ने। दोनों के साहित्य में कोणार्क के भग्न होने की बात उल्लेख नहीं है। इसके अतिरिक्त, पंडित कृपा सिंधु मिश्र अपने आलेख ‘कोणार्क के पतन’ में लिखते हैं कि कलश में चुंबक पत्थर होने के कारण विदेशी नावों के कम्पास काम नहीं करते थे, और वे नावें कोणार्क के समुद्री तट की ओर खींची चली आती थी, इसलिए शायद विदेशियों दस्युओं ने उसे तोड़ दिया। अगर ऐसा होता तो मेरा मानना है कि आस-पास के गाँव-शहरों के लोहे के बरतन और सामान भी खींचकर कोणार्क के शिखर पर चिपक जाते और यह घटना इतनी सामान्य भी नहीं थी कि उसे उस काल-खंड के साहित्य में स्थान नहीं मिलता। ऐसा माना जाता है तत्कालीन कोणार्क मंदिर में सूर्य की लोह मिश्रित मूर्ति हवा में तैरती हुई नज़र आती थी, क्योंकि ऊपर नीचे पत्थरों में चुंबक लगे हुए थे, एक चुंबक उस मूर्ति को ऊपर खींचता था तो दूसरा नीचे, लेकिन दोनों चुम्बकों के प्रभाव क्षेत्र बराबर होने के कारण मूर्ति बीच में त्रिशंकु की स्थिर थी। ऐसी ही किंवदंती राजस्थान के माउंट आबू के अर्बुदा देवी (जिसे स्थानीय भाषा में ‘अधर देवी’ यानी हवा में लटकी हुई देवी कहते है) और गुजरात के सोमनाथ मंदिर में भी ऐसा ही कुछ माना जाता है। समय की मोटी परत जमने के कारण हम किसी सत्य निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सकते हैं कि ये सारे तथ्य विज्ञान आधारित हैं या काल्पनिक? मिस्टर आर्नेट कहते हैं कि मंदिर बनते-बनते ही टूट गया, जैसा कि कवि संजीव कुमार का भी मानना है। लेकिन यह भी सत्य होता तो अबुल फजल अपनी ‘आइन-ए-अकबरी’ में अवश्य ज़िक्र करते। पुरातत्ववेत्ता स्टर्लिंग का मानना है कि भूकंप या बिजली गिरने से मंदिर नष्ट हुआ होगा, लेकिन विद्वान इसे भी नहीं मानते। वैज्ञानिकों का मानना है कि यह मंदिर पद्म तालाब को पत्थर-मिट्टी से भरकर बनाया गया था कि इस वजह से संरचनात्मक त्रुटियों से नींव अपने प्रस्तर कँगूरे का वज़न नहीं उठा पाई होगी, इस वजह से धीरे-धीरे मंदिर अपना स्थायित्व खोकर भूमिसात हो गया। दूसरा कारण, कोणार्क में लोहे की छड़ों का प्रयोग किया गया है, जंग लगने के कारण वे फैल गई, इस वजह मंदिर की दीवारें टूटने लगी। यह लोहा तालचेर और मयूरभंज की खदानों से लाया गया था, जबकि मदलापाँजी के अनुसार कोणार्क के इस रमणीय और विराट मंदिर पर काला पहाड़ ने बार-बार आक्रमण कर उसे मिट्टी में मिलाने का भरसक प्रयास किया।

जितने मुँह उतनी बातें। कोणार्क मंदिर के बारे में काफ़ी प्रकाश डाला जा चुका है, मगर फिर भी किसी ठोस ऐतिहासिक सबूतों की जानकारी नहीं मिल पाई। इतना भव्य मंदिर अपने पीछे शून्य इतिहास छोड़ गया। इतिहास-शून्य कोणार्क मंदिर? ऐसे कैसे हो सकता है? डॉ. मायाधर मानसिंह की पुस्तक ‘The Saga of land of Jagannath’ में यह लिखा गया हैं कि चंद्रभागा नदी पर बहुत बड़ा बंदरगाह था, वहाँ से श्रीलंका और अन्य दक्षिण एशियाई देशों के व्यापार होता था। राजा नरसिंह देव के समय में भी यह बंदरगाह चालू रहा होगा, अन्यथा इतना वीरानी जगह पर कोई राजा क्यों अपना और प्रजा का विपुल धन ख़र्च करेगा? आईन-ए-अकबरी में कोणार्क का ज़िक्र किया कि जगन्नाथ मंदिर के पास सूर्य को समर्पित एक मंदिर है, जिसके निर्माण में तत्कालीन ओड़िशा के 12 साल का राजस्व ख़र्च हुआ। चीनी परिव्राजक ह्वेंसाँग ने 634 ईसवी में ओड़िशा की यात्रा की थी, और अपने संस्मरण में ओड़िशा की राजधानी ‘चेलीतालो’ बताया है, जो समुद्र किनारे बसी हुई थे और यहाँ के व्यापारी दूसरों देशों की यात्रा करते थे। कुछ इतिहासकार इसे भुवनेश्वर बताते हैं तो कुछ पूरी तो कुछ इतिहासकार प्राची या चित्रोत्पला नदी के घाट पर बसे हुए किसी नगर की कल्पना करते हैं। हो न हो, शायद यह कोणार्क वाली जगह ही होनी चाहिए। कोणार्क मंदिर के पहले भाग ‘जगमोहन’ में जो भित्तिचित्र है, उसमें एक राजा हाथी पर बैठा हुआ है और कुछ संभ्रात वर्ग के लोग, अच्छे परिधान पहने हुए, उनका तालियों से अभिनंदन कर रहे हैं। इस भित्तिचित्र में लंबी गर्दन वाला जिराफ है, वह पूर्व अफ़्रीका का जंतु है। अगर वह समुद्री रास्ते से कोणार्क नहीं लाया गया होता तो उस आकृति में वह कहाँ से समाविष्ट हो जाता? इसका मतलब सुदूर देशों से कोणार्क के वाणिज्यिक सम्बन्ध बने हुए थे इस बंदरगाह के माध्यम से। यह भी हो सकता है राजा नरसिंह के पूर्वजों ने पुरी (विष्णु क्षेत्र), जाजपुर (शक्ति क्षेत्र) और भुवनेश्वर (शिव क्षेत्र) में मंदिर बनाकर अपने आपको कालजयी बना दिया था तो हो सकता है, उनके मन में भी यह ख़्याल आया होगा कि पृथक क्षेत्र (अर्क क्षेत्र) में क़तार से हटकर एक नया मंदिर बनवाकर अपने आप को अमर बना दूँ। यह भी हो सकता है कि राजा ने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में लिखवाने के उद्देश्य से इसे बनवाया हो, क्योंकि 13 वीं शताब्दी में भारत के उत्तर, दक्षिण और बंगाल में मुसलमानों के लगातार आक्रमण हो रहे थे, केवल यही एक ऐसा हिंदू राजा था, जिसने मुसलमानों को अर्क क्षेत्र में भटकने नहीं दिया। जितनी भी बार युद्ध हुए, उन्हें परास्त किया। अतः विजय की ख़ुशी में, विजय-स्मारक के रूप में राजा ने कोणार्क की स्थापना की हो, क्योंकि इतिहास में कहीं पर भी यह नज़र नहीं आता है कि वह संत-साधू प्रवृत्ति का राजा था। वह भौतिकवादी था और एक महान योद्धा भी। कोणार्क की दीवारों पर बने हाथी, घोड़े, सेना, रथ आदि तत्कालीन पृष्ठभूमि के प्रतीक है क्योंकि ओड़िशा का कोई भी ऐसा मंदिर नहीं है, जिसमें सैन्य-बल को भित्ति चित्रों में आँका है। आज भी कोणार्क, जो कला-प्रेमियों को पसंद आता है, उसका कारण यह नहीं है कि उन्हें सूर्य देवता आकर्षित कर रहे हैं या राजा नरसिंह पर उन्हें दया आ रही है। वे आतें हैं उसे देखने, उस पर अंकित जीवन के आंनद की दिव्य-भाषा को पढ़ने के लिए।

कैसा रहा होगा तत्कालीन समाज? आज लोग इसे प्रेम-मंदिर कहते हैं, शिला-पद्म कहते हैं, सिटाडेल ऑफ़ लव कहते हैं, न कि सूर्य मंदिर। भानुमती के पिटारे की तरह आज कोणार्क मंदिर में असंख्य किंवदंतियाँ बिखरी हुई हैं। आधुनिक समाज का एक वर्ग इस मंदिर में रतिक्रिया में रत मैथुन मूर्तियों देखकर व्यभिचार का अड्डा बताते हुए तत्कालीन समाज की घोर आलोचना करता है कि किसी चमत्कार से अगर इस मंदिर की सारी मूर्तियों जीवित हो उठती तो कोणार्क मंदिर का समूचा परिदृश्य कामसूत्र की 64 कलाओं पर आधारित किसी ब्लू/ पोर्न फ़िल्म में बदल जाएगा, जिसमें आप देखेंगे मुखमैथुन, गुदामैथुन, समलैंगिक-संभोग, जानवरों के साथ संभोग, सामूहिक संभोग, महिलाओं के गर्भपात (योनि में तीक्ष्ण पत्थर घुसाकर) और नवकुंजर की तरह पुरुष और जानवरों का मिश्रण। कवि की कविता 57 और 58 देख सकते हैं:

“कामशास्त्र पर
स्वतंत्र ग्रंथों की रचना की है
पौराणिक कथाओं में
उल्लेख है कि प्रजापति ने
एक लाख अध्यायों में
कामशास्त्र लिखा था
जिसे महादेव की इच्छा पर
‘नंदी’ में उसे एक सहस्र अध्यायों में
संक्षिप्त किया था
जिसे उद्दालक मुनि के पुत्र
श्वेतकेतु ने
पाँच सौ अध्यायों में संक्षेपण किया
जिसे पाँचाल बार भव्य ने
सात अधिकरणों में संपादित किया
उसे व्यावहारिक रूप दिया
वारायण, सुवर्णनाम
घोहकमुख, गोनर्पीय
गोपिकापुत्र, दत्तक
एवं कुचुमार ने पृथक पृथक लिखा
और फिर वात्सायन ने
दिया उसे नवीनरूप।”

“विशु!
कैसा लगा तुम्हें
शास्त्रों का ज्ञान।”
“कामशास्त्र का सृजन
जीवन के मंगल के लिये था।
मानव मन जिज्ञासु होता है
और इसी जिज्ञासा से
प्राचीनकाल में
शोध किये जाते थे।”
“कोणार्क मेरा शोध ग्रंथ है
ज्ञान को
पूर्णतः की ओर ले जाने के लिये
मैंने भी व्यावहारिक
और शास्त्रीय ज्ञान का
समामेलन किया
एकांगी ज्ञान से
इस शिल्प को
सत्यता की ओर
ले जाने की सम्भावना नहीं होती।”

तत्कालीन मनुष्य की कल्पना-शक्ति की अवश्य दाद देनी होगी, मगर आज क्या ये क़ानूनन वर्जित दृश्य बहू-बेटियों के साथ बैठकर देखे जा सकते हैं? चारों तरफ़ सेक्स ही सेक्स फैला हुआ है। दूसरे शब्दों में, सेक्स की पाठशाला थी कोणार्क। जो बोल नहीं पाता था आदमी अपने मुँह से, पत्थरों की भाषा सब-कुछ बोल जाती थी। इसलिए शायद रवींद्र नाथ टैगोर ने लिखा कि कोणार्क के पत्थरों की भाषा मनुष्य की भाषा से श्रेष्ठतर है। अनभिव्यक्त के बारे में भी बहुत कुछ अभिव्यक्त कर जाते हैं ये पत्थर। प्रतिभा राय ने अपने उपन्यास ‘कोणार्क’ में अश्लील मूर्तियों को बनाने के पीछे 1200 कारीगरों के 12 साल एकांत में अकेले रहने के कारण उनकी कामना, वासना, आकांक्षा के मर्म आवेदन के साथ-साथ एक और कारण बताया हैं कि ये मूर्तियाँ भूत-प्रेतों के आक्रमण और प्राकृतिक विपदाओं से मंदिर की रक्षा करती है, क्योंकि चुड़ैल, भूत-प्रेत, ब्रह्म राक्षस सभी रति-क्रिया की कामुक मूर्तियाँ देखकर आनंदित होते हैं।

तत्कालीन भारतीय समाज में कामकेलि के रूप को सिद्धि या मुक्ति का मार्ग मानते हैं, तभी तो कोणार्क के इस प्रस्तर-महाकाव्य के आधार पर जयदेव ने मुग़ल काल में ‘गीत-गोविंद’ के रूप में रचना कर डाली। रामप्रसाद दाधीच के अनुसार महाकवि जयदेव कृत ‘गीत गोविंद’ को कुछ विद्वान भक्ति रचना मानते हैं तो कुछ विशुद्ध प्रेम-भाव को कृति मानते हैं। राधा माधव को लेकर वाममागियों का अलग-अलग तत्त्व दर्शन हैं। वे कृष्ण और राधा को भैरव और भैरवी की संज्ञा देते हैं। ‘गीत गोविंद’ ओड़िशा की देन है। डॉ. कालीचरण चौधरी ने अपनी पुस्तक ‘जगन्नाथ संस्कृति’ में जगन्नाथ मंदिर को बौद्धों का पुराना मंदिर बताया है। स्वामी दयानंद और स्वामी विवेकानंद भी इस कथन का समर्थन करते हैं। आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी ने अपनी पुस्तक ‘हिंदी भाषा का इतिहास’ में जगन्नाथ मंदिर में जगन्नाथ भगवान की मूर्ति के पीछे वाली दीवार में बुद्ध भगवान के दाँत रखे जाने की बात कही है तो स्वामी दयानंद सरस्वती ने अपने ग्रंथ ‘सत्यार्थ प्रकाश’ में जगन्नाथ, बलभद्र के मध्य सुभद्रा के बैठाए जाने की परिपाटी पर प्रश्नचिह्न खड़ा किया है कि यह भैरवी चक्र का द्योतक है। जो जगह माँ अथवा पत्नी की होनी चाहिए, वहाँ बहन को बैठाना भैरवी चक्र के प्रतीक के सिवाय और क्या हो सकता है? पाश्चात्य लेखक डॉ. हापकिन्स के मतानुसार भी जगन्नाथ से पूर्व वहाँ बुद्धदेव की पूजा होती थी।

प्रसिद्ध ओड़िया साहित्यकार कृपासिंधु मिश्र के जैन और बौद्ध धर्म की मूर्तिपूजा का प्रचलन जब से हुआ तभी से जगन्नाथ की पूजा प्रारंभ हुई। ओड़िशा के पंचसखा भी जगन्नाथ को बुद्ध का अवतार मानते हैं। रामकृष्ण परमहंस ने इस ब्रह्म जगन्नाथ को कलियुग का देवता माना है। श्रेष्ठ पंडित जयदेव ने ‘गीत गोविंद’ में जगन्नाथ के दशावतार का सजीवता से वर्णन किया है। उसे आज भी भारत के सारे लोगों ने अपनाया है, उसे पढ़कर हम मंत्रमुग्ध हो जाते हैं। इसे अपनी नाट्य कला में स्थान देकर नाटककार रंगमंच के ज़रिए दर्शकों को अभिभूत करते हैं। इस प्रकार कई कवियों ने इस साहित्य के भव्य मंदिर निर्माण में सहयोग दिया है। इसी तरह ‘सत्यार्थ प्रकाश’ के ‘एकादश समुल्लास’ में स्वामी दयानंद ने ‘काली-तंत्र’ में:

“मद्य मांस व मीनं च मुद्रा मैथुनमेव च,
एते पंच मकाराः स्युर्मोक्षदा हि युगे युगे।”

कुलार्णव तंत्र में:

“प्रवृते भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा द्विजोतम:
निवृत्त्त भैरवीचक्रे सर्वे वर्णा पृथक-पृथक।”

‘महानिर्वाण तंत्र’ में:

“पीत्वा पीत्वा पुनः पीत्वा यावतपतति भूतले”

एवं ज्ञान संकलनी तंत्र में,

“मातृयोनि परित्यज्य विहरेत सर्वयोनिषु।”
“वेद शास्त्र पुराणनि सामान्य गणिका इव।”
“एकैव शांभवी मुद्रा गुप्ता कुलवधूरिव।”

आदि वाममार्गी पंथ का घोर विरोध करते हुए लिखा है कि राधा और कृष्ण को माध्यम बनाकर वाममार्गियों ने मद्य, मत्स्य, माँ, मैथुन और मुद्रा को मोक्ष का साधन बनाया है। यहाँ तक कि शास्त्रों में रजस्वला आदि स्त्रियों के स्पर्श का निषेध है। उन्हें वाममार्गियों ने अति पवित्र माना है।

‘रजस्वला पुष्कर तीर्थ चांडाली तू स्वयं
काशी चर्मकारी प्रयागः स्याद्रज ही की मथुरा मता।
अयोध्या पुक्कसी प्रोक्ता॥’ (रुद्रयामल तंत्र)

अर्थात् रजस्वला से समागम करने पर पुष्कर का स्नान, चांडाली से काशी की यात्रा, चमारी से प्रयाग स्नान, धोबिन से मथुरा यात्रा और कंजरी के साथ लीला करने से अयोध्या तीर्थ हो जाता है और वे लोग पंचमकारों का नाम भी सीक्रेट कोड में रखते हैं, जैसे मद्य का नाम तीर्थ, मांस का नाम ‘पुष्प’, मछली का नाम ‘जलतुम्बिका’, मुद्रा का नाम ‘चतुर्थी’, और मैथुन का नाम ‘पंचमी’ रखते हैं। हिंदी पाठकों को भैरवी चक्र की जानकारी होगी या नहीं, यह मुझे मालूम नहीं है। मगर उन्हें इस ‘कोणार्क’ कविता-संग्रह के माध्यम से भी इसकी जानकारी अवश्य होनी चाहिए। जब भैरवी चक्र चलता है तब उसमें ब्राह्मण से लेकर चांडाल पर्यंत सभी द्विज हो जाते हैं और जब भैरवी चक्र समाप्त हो जाता है तो वे सभी वर्णस्थ हो जाते हैं।

आख़िर में भैरवी चक्र होता है क्या?

भैरवी चक्र में वाममार्गी लोग भूमि या पट्टे पर एक बिंदु त्रिकोण चतुष्कोण वर्तुलाकार आकृति बनाकर उस पर मद्य का घड़ा रखकर पूजा करते हैं। फिर ऐसा मंत्र पढ़ते हैं, “ब्रह्मशापं विमोच्यः” अर्थात् हे मद्य! तू ब्रह्म आदि के शाप से रहित हो। एक गुप्त स्थान में जहाँ वाममार्गी के सिवाय दूसरे को नहीं आने देते, स्त्री और पुरुष इकट्ठा होते हैं। वहीं एक स्त्री को नंगी कर पूजते हैं और स्त्री लोग किसी पुरुष को नंगा कर पूजते हैं। पुनः कोई किसी की स्त्री, कोई अपनी या दूसरे की कन्या, कोई किसी की या अपनी माता, भगिनी, पुत्रवधू आदि आती है। पश्चात्, एक पात्र में मद्य भर के मांस और बड़े आदि एक थाली में रखते हैं। उस मद्य के प्याले को, उनका आचार्य हाथ में लेकर बोलता है कि “भैरवोहम्”, “शिवोहम्”, “मैं भैरव या शिव हूँ” कहकर पी जाता है। फिर उसी जूठे पात्र से सभी पीते हैं। और जब किसी की स्त्री या वेश्या नंगी करके अथवा किसी पुरुष को नंगा कर हाथ में तलवार दे कर उसका नाम देवी या पुरुष का नाम महादेव धरते हैं। उनके उपस्थ इंद्रिय की पूजा करते हैं फिर उसी देवी या शिव को मद्य का प्याला पिलाकर उसी जूठे पात्र से सब लोग एक-एक प्याला पीते हैं। उसी क्रम में पी-पी कर उन्मत्त होकर चाहे कोई किसी की बहिन, कन्या या माता क्यों न हो, जिसकी जिसके साथ इच्छा हो कुकर्म करते हैं। कभी-कभी बहुत नशा चढ़ने से जूते, लात, मुक्कामुक्की, केशाकेशी आपस में लड़ते हैं। किसी-किसी को वहीं वमन होता है। उनमें जो अघोरी होता है, वह वमन हुई चीज़ को भी खा जाता है क्योंकि उनके अनुसार:

“पाशबद्धों भवेज्जीवः पाशमुक्तः सदाशिवः।”

ऐसा तंत्र में कहते हैं कि जो लोक लज्जा, शास्त्र लज्जा, कुल लज्जा, देश आदि पाशों में बँधा है वह जीव और जो निर्लज्ज होकर बुरे काम करे वह सदाशिव होता है। उड्डीश तंत्र में एक प्रयोग लिखा है कि एक घर में चारों ओर आलय हो। उनमें मद्य के बोतल भरकर धर देवें। इस आलय से एक बोतल पीकर दूसरे आलय उसमें से पीकर तीसरे और तीसरे में से पीकर के चौथे आलय में जावें। फिर जब नशा उतरे तब उसी प्रकार पीकर गिर पड़ें। पुनः तीसरी बार इसी प्रकार पीकर गिर पड़ें तो उसका पुनर्जन्म न हो, अर्थात् ऐसे मनुष्यों का पुनः मनुष्य जन्म होना ही कठिन है। वाममार्गियों के तंत्र ग्रंथों में यह नियम है कि माता को छोड़कर किसी स्त्री को भी नहीं छोड़ना चाहिए, अर्थात् चाहे कन्या हो या भगिनी आदि क्यों न हो, सबके साथ संगम करना चाहिए। इन वाममार्गियों में दश महाविद्या प्रसिद्ध है। उनमें से एक मातंगी विद्या वाला कहता है कि “मातरपि न त्यजेत्” अर्थात् माता को भी समागम किए बिना नहीं छोड़ना चाहिए और स्त्री पुरुष के समागम के समय मंत्र जपते हैं कि हमको सिद्धि प्राप्त हो जाए।

यही कारण था कि तत्कालीन राजा-महाराजा भीड़-भाड़ वाले नगरों से दूर कोणार्क, खजुराहो और अजंता-एलोरा जैसी सुनसान वीरान जगहों में जाकर भैरवी चक्र में प्रवृत्त होते थे, जिसका वर्णन ओशो रजनीश ने अपनी पुस्तक ‘संभोग से समाधि’ में किया है। उनके अनुसार कोणार्क मंदिर की परिधि में बनी कामुक मूर्तियाँ यह दर्शाती हैं कि मनुष्य पहले अपनी काम वासना से ऊपर उठे, तभी तो उसे ईश्वर के सच्चे दर्शन हो सकते हैं, अन्यथा नहीं। उस समय ऐसा समाज केवल भारत में ही था, ऐसा भी नहीं हैं। प्राचीन मिस्र, सीरिया और बेबीलोन के आदिम आर्यों में ऐसे ही भाव थोड़े-बहुत देखने को मिलते थे। एशिया के फ्रीजिया के वासियों में एक प्रथा प्रचलित थी कि पुरुष तेज शामूका (सीपी की खोल) से अपने लिंग काटकर देवी को अर्पण कर देते थे यह कहते हुए कि हे देवी माँ! इसे ग्रहण करो। मेक्सिको में भी ऐसी प्रथा देखने को मिलती थी। बाइबिल में जननेन्द्रिय को पवित्रता का प्रतीक मानते थे। यहाँ तक कि यहूदी स्त्रियाँ सोने-चाँदी के लिंग बनाकर जीविकोपार्जन करती थीं। अरब के लोग अपने जननेन्द्रिय पर हाथ रखकर शपथ खाते थे या प्रतिज्ञा लेते थे। ग्रीस के प्रसिद्ध शिल्पी फ़िडीआस अश्लील मूर्तियाँ बनाते थे, लेकिन कोणार्क की मूर्तियों के सामने कुछ भी नहीं थीं।

अगर सही-सही कहा जाए तो कोणार्क ‘थ्री डब्ल्यू’ का केन्द्र है। थ्री डब्ल्यू अर्थात् वार, वर्शिप एंड वूमेन। कोणार्क के पहिए आज दुनिया भर में आकर्षण के केन्द्र है न केवल सूर्यदेवता के रथ के होने के कारण, बल्कि भवसागर के भी, जीवन के भी पहिए हैं। कोणार्क में कुछ भी शांत नहीं है, कुछ भी गतिविहीन नहीं है। कुछ भी अनुर्वर नहीं है। पत्थर गीत गाते है, प्रतिध्वनियाँ निकलती हैं, मृदंग और ढोल की थापों पर। पत्थर दौड़ते हैं, वेगवान घोड़ों की तरह, सूरज के रथ को तेज़ी से दौड़ाते हुए। यहाँ पत्थरों पर फूल खिलते हैं, सहस्र हाथों में चमक लिए। तभी तो कवि लिखता है:

“कोणार्क तो
कला-तीर्थ है
जो एक बार देख ले
तो वह शिल्प
जो पत्थर पर
उकेरा गया है
वह जीवन में
उतर ही आता है
वह अंगासनों की छवि
छा जाती है मन मस्तिष्क पर।
सच कहो विशु
यह तुम्हारी कल्पना थी
या तुम्हारे
अनुभव का प्रतिरूप
भग्नावशेषों में भी
आज तक शिथिल नहीं हुई हैं
वह रति मूर्तियाँ
परिकल्पना में
बस जाती है
वह जीवंत क्रियाशिल्प॥”

इतिहास जो कुछ भी कहें, पौराणिक गाथाएँ जो कुछ भी कहें, लेकिन एक अभियंता होने के कारण मेरी निगाहों में कोणार्क का कुछ और ही महत्त्व है। 13वीं शताब्दी में इतने बड़े-बड़े पत्थर और आयरन बीम सौ फ़ीट से ज़्यादा ऊँचाई पर कैसे ले जाया गया होगा, उस समय न तो कोई स्टीम इंजिन था और न ही कोई सिविल इंजिनियरिंग के आधुनिक उपकरण जैसे डैरिक या वायर रोप या पुली ब्लॉक सिस्टम। यह सोच से परे है कि बड़े-बड़े पत्थरों को कैसे उतनी ऊँचाई पर फ़िट किया होगा? यह अर्क प्रदेश समुद्री किनारे पर है, जहाँ चारों तरफ़ बालू ही बालू। आस-पास न कोई पहाड़ या न ही पत्थरों की खदानें थी। अमरकंटक से निर्गत होने वाली महानदी की उपशाखाओं कुशभद्रा, चित्रोत्पला, प्राची और चंद्रभागा नदियों से मंदिर निर्माण की सामग्री यानी क्लोराइट, लेटेराइट और खोंडालाइट के बड़े-बड़े पत्थरों की चट्टानें, लोहा-लकड़ी ढोया होगा या फिर हाथियों या किसी और यंत्र कर द्वारा? इसका मतलब आस-पास पत्थरों की खदानें भी रही होगी, वहाँ से इतने विशाल पत्थरों को लाया गया होगा? काजीरंगा नेशनल पार्क (असम), महाबोधी टेंपल कंपलेक्स (बोधगया), हुमायूँ कंपलेक्स (दिल्ली) जंतर-मंतर (जयपुर), अजंता-एलोरा (महाराष्ट्र), ताजमहल (आगरा), नालंदा विश्वविद्यालय (बिहार) की तरह ऐसी अवस्था में कोणार्क को विश्व-धरोहर के रूप में शामिल किया जाना सारे विश्व के लिए गौरव का विषय है। कितने कारीगर, राजमिस्त्री राजा की बर्बरता का शिकार हुए होंगे, कितने मंदिर बनाते समय ऊँचाई से गिरकर मौत के शिकार हुए होंगे और कितने धम्मपदों ने चंद्रभागा में कूदकर आत्म-विजर्सन किया होगा?

सारे दृश्य एक-एक कर आपकी आँखों से गुज़रने लगें तो अवश्य आँखों के दोनों में आँसुओं की स्फ़िटक बूँदे साफ़ दिखाई देने लगेंगी और आपके दोनों हाथ अपने आप जुड़कर उन अज्ञात कलाकारों की आत्मा को शांति-सद्गति देने के लिए उतावले हो उठेंगे। अगर हम अपनी इस विश्व-धरोहर को सही सम्मान नहीं देते हैं या उनकी कला की क़द्र नहीं करते हैं तो यह अपने आप में डूबकर मर जाने जैसी घटना होगी। निस्संदेह कोणार्क का सूर्य मंदिर पत्थरों पर लिखा महाकाव्य है, वेद-व्यास के ‘महाभारत’, वाल्मीकि की ‘रामायण’ कालिदास के ‘रघुवंश’, ‘मेघदूत’, ‘कुमारसंभव’ की तरह चिरंतन सत्य है मूल्य-बोध के साथ, मगर भाषा पूरी तरह अलग है, जिसे एक नहीं, दो नहीं, बारह सौ कारीगरों ने तत्कालीन समाज की गतिशीलता को अंकित करने के लिए पत्थरों पर हथौड़ी चलाकर लिखा है। कोणार्क मंदिर यथार्थ में नग्नता का प्रतीक नहीं है, बल्कि समाजोपयोगी चेतना का प्रतीक है, नव-निर्माण की कहानी है। कोणार्क में इतिहास हैं, किंवदंतियाँ हैं, कहानियाँ हैं। इतिहास लिखता है केवल राजा-रानी और सेनापति की कहानी, मगर शिल्पियों की कौन लिखेगा? इस संदर्भ में हमारे जैसे साधारण लेखकों, कवियों, आलोचकों और पाठकों की ज़िम्मेदारी बनती है ताकि हम पूर्वजों की तरह एक और नया ऐसा कोणार्क तैयार करें, जिस पर आने वाली पीढ़ियाँ गर्व अनुभव कर सकें। फ़िलहाल रांची से 39 किलोमीटर दूर कोणार्क की तरह एक सूर्य मंदिर विद्यमान है, जिसमें 18 पहिये यानी 9 एक्सेल और सात घोड़े जुते हुए हैं। इन सारे दृष्टिकोण से अगर देखा जाए तो डॉ. संजीव कुमार का कविता-संग्रह ‘कोणार्क: एक प्रेम-मंदिर’ अत्यंत ही सराहनीय क़दम है, उसकी जितनी तारीफ़ की जाए, उतनी कम है, क्योंकि विश्व धरोहर कोणार्क के उपेक्षित मंदिर के साथ-साथ पात्रों को जीवित रखने का प्रयास वंदनीय है। उम्मीद है, हिन्दी जगत में इस कविता-संग्रह का भरपूर स्वागत होगा।

दिनेश कुमार माली,
तालचेर (ओड़िशा)

0 टिप्पणियाँ

कृपया टिप्पणी दें

लेखक की अन्य कृतियाँ

पुस्तक समीक्षा
बात-चीत
साहित्यिक आलेख
ऐतिहासिक
कार्यक्रम रिपोर्ट
अनूदित कहानी
अनूदित कविता
यात्रा-संस्मरण
रिपोर्ताज
विडियो
ऑडियो

विशेषांक में

लेखक की पुस्तकें
लेखक की अनूदित पुस्तकें