मेरी नज़रों में ‘राजस्थान के साहित्य साधक’

15-10-2025

मेरी नज़रों में ‘राजस्थान के साहित्य साधक’

दिनेश कुमार माली (अंक: 286, अक्टूबर द्वितीय, 2025 में प्रकाशित)

 

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की बहुचर्चित पुस्तक ‘राजस्थान के साहित्य साधक’ में राजस्थान के मूल और प्रवासी साहित्यिकारों के अतिरिक्त अन्य स्थानों से प्रवास करते हुए राजस्थान में दीर्घ समय से रहने वाले साहित्यिकारों के व्यक्तित्व एवं कृतित्व की जानकारी दी गई है। इस पुस्तक को पढ़कर पाठक न केवल समकालीन हिंदी और राजस्थानी साहित्य की गतिविधियों से परिचित हो सकते हैं, बल्कि उन साहित्यिकारों के कृतित्व के साथ-साथ उनकी आंतरिक अथवा बाहरी दुनिया से भी कुछ हद तक अवगत हो सकते हैं। 

निस्संदेह, डॉ. प्रभात कुमार सिंघल का नाम भारतीय साहित्य एवं पर्यटन पत्रकारिता के क्षेत्र में अपने परिचय का मोहताज नहीं है। उन्होंने हिन्दी और राजस्थानी साहित्य में ऐसे-ऐसे उल्लेखनीय एवं ऐतिहासिक कार्य किए हैं, जिसे बड़ी-से-बड़ी सरकारी अथवा ग़ैर सरकारी साहित्यिक संस्थाएँ भी अधिकतर हाथ लगाने से कतराती है। वे अधिकतर ऐसे प्रोजेक्टों का चयन करते हैं, जिसमें सुदीर्घ समय और विपुल धनराशि के साथ-साथ अथक परिश्रम की आवश्यकता होती है। ‘नारी चेतना की साहित्यिक उड़ान’, ‘जियो तो ऐसे जियो’ ‘बाल मन तक’, ‘राजस्थान के साहित्य साधक’ आदि उनकी पुस्तकें इस श्रेणी में ली जा सकती हैं। आधुनिक युग में अधिकांश लोग पुराने मंदिरों के चमचमाते कँगूरे देखकर तत्कालीन समाज के ऐश्वर्य का आकलन करते हैं, मगर उनका ध्यान नींव की ईंट की तरफ़ नहीं जाता। इस आलेख का मेरा मुख्य उद्देश्य नींव की ऐसी ईंट के महत्त्व को आपके समक्ष रखना है, क्योंकि नींव की ईंट पर ही कँगूरों की भव्यता झलकती है। 

इस पुस्तक में जोधपुर, जयपुर, अजमेर, उदयपुर, बीकानेर, कोटा, भरतपुर, सीकर संभागों के अतिरिक्त राजस्थान छोड़कर व्यापार या व्यवसाय की तलाश में देश के अन्य हिस्सों जैसे ओड़िशा, कोलकाता, मुंबई आदि जाने वाले और देश के अन्य प्रांतों जैसे उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि से राजस्थान में आकर बसने वाले प्रमुख लेखकों को शामिल किया गया है। 

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल राजस्थान के कोटा ज़िले के रहने वाले है, और यहाँ की धरती शिक्षा-साहित्य के क्षेत्र में अति उर्वरा होने के कारण शिक्षकों और साहित्यिकारों की समृद्ध खेप पैदा करती है। इस धरा ने ओम थानवी, केसरी सिंह मंडियार, हेमंत शेष, जगजीत सिंह, निकिता ललवानी जैसे महत्त्वपूर्ण पत्रकारों और साहित्यिकारों की पृष्ठभूमि तैयार की है। शिक्षा के क्षेत्र में तो कोटा का कहना ही क्या! देश का एक नंबर एजुकेशन हब है। ख़ासकर आईआईटी और मेडिकल की तैयारी करने वाले बच्चों के लिए तो किसी ‘धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र’ से कम नहीं है। इस दृष्टिकोण से कोटा को आधुनिक युग के ‘नालंदा’, ‘तक्षशिला’, ‘रत्नगिरी’ आदि के रूप में देखा जा सकता है। कभी पुरातन काल में देश-विदेश के कोने-कोने से विद्यार्थीगण वहाँ अध्ययन के लिए आते थे, वैसे ही कोटा में आधुनिक युग में देश के कोने-कोने बच्चे यहाँ पढ़ने आते हैं। कोटा की धरती के माटी-पानी-पवन में लक्ष्मी की तुलना में सरस्वती का ज़्यादा प्रभाव है। यही वजह है कि कोटा का अंचल न केवल साहित्य, कला, संस्कृति, शिक्षा, संगीत, इतिहास, भूगोल, खेल, पुरातत्व, पर्यावरण सभी के क्षेत्रों में अपनी अमिट छाप छोड़ता है, बल्कि डॉ. प्रभात कुमार सिंघल जैसे साहित्यिकार अपनी मेहनत, लगन और समर्पण की बदौलत संपूर्ण मानव समाज के प्रतिनिधि पुरुषों, महिलाओं, बच्चों, बुजुर्गों-सभी को साहित्य के माध्यम से जोड़कर एक सुशृंखलित समाज के निर्माण में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा करते हैं। कभी वे राजस्थान सरकार के सूचना एवं जनसंपर्क विभाग के संयुक्त निदेशक पद को सुशोभित कर रहे थे और अपनी नौकरी से प्रभावित होकर आज वे समाज के सर्वांगीण विकास हेतु हिंदी भाषा के द्विवेदी युग के प्रर्वतक महावीर प्रसाद द्विवेदी की तरह ज्ञान के हर विषय पर अपनी क़लम चलाते हैं। चाहे पर्यटन हो या इतिहास, साहित्य हो या पत्रकारिता; उन्होंने अर्द्ध शताधिक पुस्तकों की रचना कर पूरे देश में शिक्षा, साहित्य और पत्रकारिता के क्षेत्र में ऐसा वातावरण तैयार किया है, जिसे बिरले व्यक्ति ही उसे साकार कर सकते है। ढिबरी या लालटेन की सलिता की तरह जलकर वे दूसरों को उजाला प्रदान कर सकते है। डॉ. प्रभात कुमार सिंघल का व्यक्तित्व बहुआयामी है और कृतित्व विपुल। उनके भीतर दो सत्ताएँ मुझे साफ़ नज़र आती हैं। पहली सत्ता, जो उन्हें खोजी पत्रकारिता की ओर ले जाती है और दूसरी, उन्हें साहित्य के सूक्ष्म पहलुओं पर विचार-विमर्श के लिए प्रेरित करती है। यह पुस्तक उनकी दूसरी सत्ता की ज़्यादा उपज है। इस पुस्तक के एक छोटे से हिस्से में अपनी उपस्थित दर्ज कराने के कारण मैं उनकी रचना-प्रक्रिया से अच्छी तरह अवगत हूँ, इसलिए आसानी से समझ सकता हूँ कि इस पुस्तक में संकलित आलेखों के लिए उन्हें कितनी अधिक मेहनत करनी पड़ी होगी। वह भी पूरी तरह निःस्वार्थ भावना से। जहाँ तक मेरा मानना है; ‘राजस्थान के साहित्य साधक’ शीर्षक किसी विश्वविद्यालय के लिए पीएच.डी. का विषय हो सकता है, या फिर साहित्य अकादमी अथवा उसके जैसी कई ग़ैर-सरकारी साहित्यिक अनुष्ठान ऐसे शोधपरक प्रोजेक्ट अपने हाथ में ले सकते हैं। उसके लिए तन-मन-धन तीनों की नितांत ज़रूरत होती है। यहाँ ‘तन’, साहित्यिकारों के बारे में आँकड़े इकट्ठे करने तथा उन्हें प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत के लिए किया जाने वाला श्रम है; ‘मन’, उनकी साहित्यिक संवेदनाओं और उपादानों को टटोलने का और ‘धन’ लगभग चार सौ पृष्ठों वाली पुस्तक प्रकाशित करने के लिए अदा की जाने वाली क़ीमत। सजिल्द, सुंदर फांट वाली, आकर्षक पृष्ठ और साहित्यिकारों के फोटो, पता, मोबाइल नंबर समेत 62 साहित्यिकारों को समेटने वाली पुस्तक की कम से कम 300 प्रतियाँ अवश्य छपी होंगी, जिसकी लागत अस्सी-नब्बे हज़ार रुपए के क़रीब आई होगी। इतना ख़र्च करना क्या किसी एक दशक से ऊर्ध्व अपनी सरकारी नौकरी से सेवानिवृत्त हुए लेखक के लिए सम्भव है? ऐसे प्रोजेक्ट में ‘तन-मन-धन’ से सेवा वही साहित्यिकार कर सकता है, जिसके भीतर प्रचंड साहित्य-क्षुधा हो, और सकारात्मक प्रखर पत्रकारिता का उच्च ज्वार-भाटे की लहरें ज़ोर-ज़ोर से हिलोरें मार रहा हो। इसलिए उन्हें ‘लेखकों के लेखक’, ‘पत्रकारों के पत्रकार’, ‘साहित्यिकारों के साहित्यिकार’ कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं हैं। अभी तक तो मैंने केवल इस पुस्तक की पृष्ठभूमि में डॉ. सिंघल के साहित्यिक अवदान और साधना को उजागर करने का क्षुद्र प्रयास किया है, मगर अब मैं इस पुस्तक की अंतर्वस्तु, राजस्थान के साहित्यिकारों के व्यक्तित्व और कृत्तित्व पर प्रकाश डालते हुए उनके साहित्य पर हल्का-फुल्का विमर्श, चिंतन-मनन के समुद्र-मंथन से पैदा होने वाले सुधा रस के जलपान हेतु अग्रसर होंगे। 

इस पुस्तक की भूमिका विख्यात आलोचक विजय जोशी ने लिखी है, जिसमें उन्होंने डॉ. प्रभात कुमार सिंघल को मानवीय संवेदनाओं के उजास और गंभीर चिंतन-मनन के अनुनाद को आत्मसात करने वाला साहित्यिकार बताया है, जो रचनात्मक दृष्टिकोण से अपने लेखन कर्म के प्रति सजग और चेतन होकर लगातार साहित्य साधकों की सर्जन यात्रा में सहभागी बने हुए हैं। उनके इस कथन से सहमत होते हुए मैं, यह भी जोड़ना चाहूँगा कि वे केवल सहयात्री ही नहीं है, बल्कि उनके साहित्य को उर्ध्वगति देने में उत्प्रेरक (catalyst) का भी कार्य कर रहे हैं। 

राजस्थान न केवल महाराणा प्रताप, पृथ्वीराज चौहान, दुर्गादास जैसे शूरवीरों की भूमि रही है, बल्कि ‘पृथ्वीराज रासो’ जैसे वीर रस वाले काव्य लिखने वाले कवि चंद्र बरदाई की धरती भी है। यहाँ गौरी शंकर हीरालाल ओझा जैसे महान पुरातत्वविद् पैदा होते हैं तो ‘चाणक्य’ सीरियल बनाने वाले चंद्र प्रकाश द्विवेदी जैसे कलाकार, ‘नदीम-श्रवण’ की जुगल जोड़ी में विख्यात संगीतकार श्रवण, ‘तारक मेहता का उल्टा चश्मा’ टीवी धारावहिक में काम करने वाला मेरा सहपाठी शैलेश लोढ़ा भी इसी धरती की देन है। ख़ैर, यह दूसरी बात है कि भारत के हर प्रांतों की अपनी-अपनी विशेषता है, मगर राजस्थान की लोक-संस्कृति, कला, साहित्य, खान-पान, परिवेश, आत्मीयता, मनुहार आदि सर्वोत्कृष्ट है। इस वजह से यह पुस्तक नवोदित रचनाकारों के लिए समकालीन भारतीय साहित्य, संस्कृति और कला के राजस्थानी चैप्टर का प्रतिनिधि इन्साक्लोपीडिया है; और वरिष्ठ साहित्यिकारों को अपने अतीत में झाँकने और वर्तमान में पीढ़ी के लेखकों से परिचित होने का स्वर्णिम अवसर प्रदान करणे वाला दस्तावेज़। 

व्यक्तिगत तौर पर मेरे लिए यह अत्यंत ही ख़ुशी व गर्व का विषय है कि इस पुस्तक के बासठ साहित्यिकारों में से दस-बारह साहित्यिकारों से मेरा प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से जान-पहचान है। उनसे किसी-न-किसी संदर्भ में भेंट-मुलाक़ात भी हुई है, जिनमें रमाकांत शर्मा ‘उद्भ्रांत’, डॉ. रति सक्सेना, जय प्रकाश पांड्या ‘ज्योतिपुंज’, डॉ. अखिलेश पालरिया, नंद भारद्वाज, बी. एल. आछा, डॉ. विमला भंडारी आदि। कुछ ऐसे भी लेखक-लेखिकाएँ हैं, जिनकी रचनाओं को मैंने हिन्दी की विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में पढ़कर बहुत कुछ सीखा है। उदाहरण के तौर पर फारुख़ आफरीदी, किरण खेरूका, कुसुम खेमानी, ओम नागर, विकास देव, इकराम राजस्थानी, वेद व्यास, नीरज दहूया, महेन्द्र भाणावत, मधु माहेश्वरी, अतुल कनक, जितेन्द्र कुमार शर्मा ‘निर्मोही’, बाल मुकुंद ओझा, दीनदयाल शर्मा प्रमुख है। और सबसे ज़्यादा महत्त्वपूर्ण, जिन साहित्यिकारों को मैं व्यक्तिगत तौर पर मिल नहीं पाया, उस कमी को डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की इस संग्रहणीय पुस्तक ने पूरा कर दिया। घर बैठे राजस्थान की समकालीन साहित्य-संस्कृति के पुरोधाओं और आने वाली पीढ़ी से परिचित होने का अवसर मिला, इसके लिए मैं उन्हें हार्दिक साधुवाद देता हूँ। 

मेरे दीर्घ साहित्यिक सफ़र के दौरान मैंने अपने जीवन में कई उतार-चढ़ाव देखे। कुछ घटनाओं को लिपिबद्ध कर पाया, कुछ मेरे स्मृतियों के कोषों में संचित हो गए। वे कब बाहर निकलेंगे, कह नहीं सकता। मेरा यह मानना है कि किसी भी लेखक के निर्माण में न केवल पुरानी पीढ़ी की साहित्य संपदा ज़रूरी है, बल्कि समकालीन लेखकों से संपर्क, बौद्धिक चर्चा, उनके साहित्य पर विमर्श भी उतना ही ज़रूरी है; बदलती हवा के रुख़ के बारे में जानने के लिए। 

इस संदर्भ में कुछ उदाहरण, मैं अपने व्यक्तिगत जीवन से दूँगा। 

सन् 2009 या 2010 की बात होगी, जब मैंने ओड़िया से हिन्दी में अनुवाद का काम शुरू किया था। ओड़िया भाषा के प्रतिष्ठित लेखक स्व. जगदीश मोहंती ने मेरे लिए ‘सरोजिनी साहू की श्रेष्ठ कहानियां’ शीर्षक से ब्लॉग बनाया था। उस पर पोस्ट की हुई मेरी कहानियों को पढ़कर विमला भंडारी जी ने फोन किया था और उन अनूदित कहानियाँ की, प्रशंसा की थी और फिर जब उनसे थोड़ा-थोड़ा परिचय हो गया तो मैंने उनसे अपने पहले अनूदित उपन्यास ‘पक्षीवास’ की भूमिका लिखने के लिए आग्रह किया था, जिसे उन्होंने सहर्ष स्वीकार कर लिया था। 

यही कारण है कि 1 फरवरी 1955 को राजसमंद के गाँव राजनगर में जन्मी डॉ. विमला भंडारी का नाम सामने आते ही मेरी क़लम श्रद्धा से झुक जाती है। यही नहीं, उन्होंने मुझे सलूंबर में अपनी ‘सलिला संस्था’ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय बाल साहित्य सम्मेलनों में भी आमंत्रित किया, जहाँ मेरा अनेक ख्याति-लब्ध लेखकों में परिचय हुआ, जैसे प्रो. दिविक रमेश, प्रो. प्रभापंत, मधु माहेश्वरी, सुधा जौहरी, आशा पांडेय ‘ओझा’ आदि। कालांतर में उनका समग्र बाल साहित्य पढ़कर मैंने दो आलोचना पुस्तकें (भाग 1 एण्ड भाग 2) लिखी, जिसमें एक यश पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली से ‘विमला भंडारी की रचना धर्मिता’ शीर्षक से प्रकाशित हुई और दूसरी प्रकाशनाधीन है। एक बार वे अपने जेठ जी के बेटी की शादी के सिलसिले में भुवनेश्वर आई हुईं थीं तो ‘सारला पुरस्कार’ से पुरस्कृत ओड़िया लेखिका सरोजिनी साहू, हमारी कंपनी महानदी कोल्फ़िल्ड्स लिमिटेड के राजाभाषा प्रबंधक, उदयनाथ बेहेरा, विमला भण्डारी और उनके पति जगदीश भण्डारी जी के साथ मैं भी पुरी और कोणार्क भ्रमण के लिए गया था। उस पर मैंने अपना संस्मरण ‘पूर्व और पश्चिम का सांस्कृतिक सेतु: जगन्नाथ पुरी’ लिखा था, जो अनेक पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। कैनेडा के प्रकाशित वेब मैग्ज़ीन ‘साहित्य कुंज’ ने उसे धारावाहिक प्रकाशित किया था। इस तरह एक लेखक दूसरे लेखक का सान्निध्य पाकर अपने साहित्यिक सफ़र पर तेज़ी से अग्रसर होता जाता है। उनकी बहुचर्चित पुस्तक ‘सलूंबर का इतिहास’ के कुछ सदंर्भ मैंने अपने संस्मरण ‘चीन में सात दिन’ में भी पिरोए है। 

उन्हीं के एक आयोजन में उदयपुर की मधु माहेश्वरी से मुलाक़ात होती है। वे बाल साहित्यिकार हैं। उसकी प्रसिद्ध कृतियों में ‘बेटी की अभिलाषा’, ‘बतख डाले डेरा’ और ‘मित्रता की मिसाल’ हैं। 

डॉ. विमला भंडारी के बाद अगर मेरे जीवन में कोई विशिष्ट हिन्दी साहित्यिकार संपर्क में आया और जिसने मेरी लेखन की कला और विधा दोनों को पूरी तरह से प्रभावित किया। वे मुझे अनुवाद से हटाकर आलोचना के क्षेत्र में खींचकर ले गए। विचारों और चिंतन-मनन की एक नई दुनिया में, तो वे हैं हिंदी के अन्यतम शीर्ष कवि रमाकांत शर्मा ‘उद्भ्रांत’। 

27 अगस्त 2012 को लखनऊ के उमाबाली प्रेक्षागृह में उन्हें मंच पर मुख्य अतिथि के रूप में उद्बोधन देते हुए दूर से देखा और सुना था, मगर मुलाक़ात हुई चीन में सन् 2013 अगस्त को, एक साल बाद। इस साहित्यिक विदेश यात्रा पर मैंने अपनी पुस्तक ‘चीन में सात दिन’ लिखी थी, जो मैंने उद्भ्रांत जी के अनवरत मार्गदर्शन के कारण उन्हें समर्पित की थी। बाद में, मेलजोल का सिलसिला शुरू हुआ, जो आज तक जारी है। कालान्तर में, हमारा सम्बन्ध ज़्यादा से ज़्यादा निविड़ होता गया है। अपने जीवन के 78 बसंत देखने वाले, हिन्दी में 150 से ज़्यादा सार्थक साद्देश्यपरक कृतियों की रचना करने वाले उद्भ्रांत जी की मुख्य काव्य-कृतियों में ‘त्रेता’, ‘अनाद्य सूक्त’, ‘राधा माधव’, ‘रुद्रावतार’ पर मैंने चार आलोचनात्मक पुस्तकें: ‘त्रेताः’ एक सम्यक् मूल्यांकन (राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत), ‘अनाद्य सूक्तः विज्ञान काव्याध्यात्मिक दर्शन का अणुचिंतन (विद्योत्तमा पुरस्कार से पुरस्कृत)’, ‘राधा माधवः एक समग्र विवेचन’ (म.प्र. राष्ट्र भाषा समिति, भोपाल के डॉ. हजारीमल जैन वांङ्य पुरस्कार प्राप्त), ‘मिथकीय सीमाओं से परे रुद्रावतार’ के साथ-साथ उनकी अन्य रचनाओं और गीतों पर आधारित दो ‘उद्भ्रांत साहित्य पर मेरे नोट्स’ एवं ‘उद्भ्रांत की गीत साधना’ पुस्तकें लिखी हैं। उद्भ्रांत जी हरिवंश राय बच्चन को अपना गुरु मानते हैं और उनकी प्रसिद्ध उक्ति अक्सर दोहराते हैं कि भगवान को पाना मुश्किल है, उसी तरह किसी एक इंसान को समझ पाना भगवान पाने से कमतर नहीं है। उद्भ्रांत जी दूरदर्शन में उप महानिदेशक पद से सेवा निवृत्त हुए है और संप्रति नोएडा में रहते है, मगर जन्म तो उनका राजस्थान के नवलगढ़ हुआ था, 4 सितम्बर 1948 को। उनसे जुड़ना मेरे लिए किसी दैविक अनुकंपा से कम नहीं है। 

प्रवासी राजस्थानियों की शृंखला में एक और सुपरिचित नाम मेरे लिए है, डॉ. रति सक्सेना का। उनसे मेरी मुलाक़ात हुई थी मध्यप्रदेश के राजनांद गाँव में, सन् 2012 में। रायपुर की साहित्यिक संस्था ‘सृजनगाथा’ द्वारा आयोजित दो दिवसीय लेखक शिविर के एक सत्र में मुख्य अतिथि के रूप में वे आमंत्रित की गई थीं। सन् 1954 को उदयपुर में जन्मी रति सक्सेना केरल की राजधानी त्रिवेंद्रम में रहती हैं, अपने सेवानिवृत्त वैज्ञानिक पति के साथ। उन्हें केंद्र साहित्य अकादमी के अनुवाद पुरस्कार, राजस्थान साहित्य अकादमी के मीरा पुरस्कार, केरल साहित्य अकादमी के समग्र साहित्य पुरस्कार के साथ-साथ कई अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुए हैं। वह एक दशक से द्विभाषी पत्रिका ‘कृत्या’ का संपादन कर रही हैं और वैश्विक संगठन ‘वर्ल्ड पोइट्री मूवमेंट’ की फ़ाउंडर भी है। उन्होंने 22 से अधिक विदेशी साहित्यिक समारोहों में भाग लेकर वैदिक कविताओं के माध्यम से विश्व में हिन्दी की विशिष्ट उपस्थिति दर्ज करवाई है। प्रसिद्ध ओड़िया कवि रमाकांत रथ की कविताओं को मेरे द्वारा किए गए अनुवाद को ‘कृत्या’ में प्रकाशित कर न केवल मेरा उत्साहवर्धन किया, बल्कि अनुवाद को भी मुख्यधारा की श्रेणी का साहित्य समझकर आगे के लेखन के लिए प्रेरणा दी। कैंसर की बीमारी से जूझते हुए भी वह ‘आईसीयू में ताओ’ जैसी पुस्तक लिखकर ‘चिकित्सा में कविता के उपयोग’ को तलाशते हुए अपनी अटूट जिजीविषा का परिचय देती हैं। 

डॉ. रति सक्सेना के बाद प्रवासी राजस्थानी साहित्यिकारों की श्रेणी में ऋतु भटनागर का नाम आदर के साथ लिया जाता है। यद्यपि उनसे कभी मेरी मुलाक़ात नहीं हुई, मगर ऑथर प्रेस, नई दिल्ली के प्रकाशक सुदर्शन केसरी ने मेरी रचनाओं का अंग्रेज़ी अनुवाद करने हेतु उनका नाम सुझाया था। यद्यपि उनका जन्म 1973 में लखनऊ में हुआ, मगर शादी हुई है जयपुर के सुमित भटनागर से। जो आईआरएस है और बैंगलुरू में नौकरी करते हैं। इस वजह से यह दंपती बेंगलुरू शिफ़्ट हो गई। ऋतु भटनागर बहुत अच्छी पेंटर है। वह अंग्रेज़ी से हिंदी और हिंदी से अंग्रेज़ी के अनुवाद में भी सिद्ध हस्त है। इंफ़ोसिस के संस्थापक नारायण मूर्ति की धर्मपत्नी, समाज-सेविका, लेखिका सुधा मूर्ति की अनेक अंग्रेज़ी पुस्तकों का उन्होंने हिंदी में अनुवाद किया है। मेरी आलोचना की तीन पुस्तकों का भी उन्होंने अंग्रेज़ी में अनुवाद किया है। 

प्रो. अज़हर हाशमी ‘राजस्थान के साहित्य साधक’ पुस्तक लिखी जाने के समय इस दुनिया में थे, मगर इस पुस्तक पर मेरी समीक्षा लिखे जाने से पूर्व उनका देहांत हो गया। उन्हें अश्रुल श्रद्धांजलि अर्पित करते हुए उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर प्रकाश डालना चाहूँगा। 13 जनवरी 1950 को झालावाड़ में जन्में प्रो. अजर हाशमी इंसानियत और सद्कर्म का संदेश देने वाले देश के प्रसिद्ध गीतकार थे। बाद में वे मध्यप्रदेश चले गए। उन्हें अपनी ‘माँ’ कविता के लिए उत्तरप्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल तथा भारत के सेवानिवृत्त न्यायमूर्ति मार्कंडेय काटजू द्वारा “विशिष्ट काव्य पुरस्कार”और मध्यप्रदेश के राज्यपाल द्वारा सम्मानित किया गया था। प्रो. हाशमी के गीतों पर, व्यंग्यों पर, ग़ज़लों पर पीएच.डी. की गई है। मध्यप्रदेश बोर्ड की कक्षा 10वीं की हिन्दी पाठ्यपुस्तक में उनकी कविता “बेटियाँ पावन दुआएँ हैं” शामिल की गई है। राजस्थान पत्रिका व नवभारत के स्तंभकार थे। उनकी कविताएँ दूरदर्शन एवं आकाशवाणी से प्रसारित होती रहती हैं। उनका कालजयी गीत “मुझको राम वाला हिंदुस्तान चाहिए” 1976 में लिखा गया था, जब देश के हालात ठीक नहीं थे। यह गीत 26 जनवरी 1991 को दूरदर्शन पर प्रसारित किया गया। जिससे उनकी लोकप्रियता शिखर चूमने लगी। वह गीत ‘यू-ट्यूब पर उपलब्ध है। गायक रूप कुमार राठौड़ ने आवाज़ की और संगीतकार सिद्धार्थ कश्यप ने संगीत दिया है। 

रेडियो और दूरदर्शन में 33 साल कार्य करने वाले नंद भारद्वाज साहब के नाम से हिंदी साहित्य जगत भली-भाँति परिचित है। उनसे मेरी पहली मुलाक़ात हुई थी, राजनांद गाँव में, सन् 2012 में। वहाँ गजानन माधव मुक्ति बोध पर एक संगोष्ठी आयोजित की गई थी, क्योंकि मुक्तिबोध राजनांद गाँव की कॉलेज में अध्यापन कार्य करते थे। वहाँ के एक संग्रहालय में उनकी पांडुलिपियाँ व अन्य रचनाएँ रखी हुई हैं। नंद भारद्वाज ने मुक्तिबोध की कविताओं पर पीएच.डी. की, इसलिए उन्हें मुख्य वक्ता के रूप में ‘सृजनगाथा’ वालों ने आमंत्रित किया था। वहाँ मुझे उनका बीज-वक्तव्य सुनने का स्वर्णिम अवसर प्राप्त हुआ। उनसे मुलाक़ात हुई। मैंने उन्हें मेरा पहला अनूदित उपन्यास ‘पक्षीवास’ भेंट किया। परवर्ती समय में, मुझे उनके जयपुर के मानसरोवर में स्थित आवास में जाने का अवसर मिला था। वहाँ उन्होंने मुझे अपना उपन्यास ‘आगे खुलता रास्ता’ अवलोकनार्थ भेंट किया था। मैंने उस पर संक्षिप्त समीक्षात्मक टिप्पणी की थी, तो उन्होंने फोन पर कहा था, “आपने भले ही छोटी समीक्षा की है, मगर सारगर्भित ओर हृदयस्पर्शी है।” उस उपन्यास के राजस्थानी अनुवाद पर उन्हें केंद्र साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त हुआ था। अगस्त 1978 को बाड़मेर के माड़पुरा गाँव में जन्मे, राजस्थानी साहित्य पत्रिका ‘हरावल’ और राजस्थान साहित्य अकादमी से प्रकाशित राजस्थान के कवि शृंखला के तीसरे भाग ‘रेत पर नंगे पांव’ के संपादक के रूप में उन्होंने ख़ूब कीर्ति अर्जित की थी। उनके पसंदीदा लेखकों में विक्टर ह्यूगो, हैमिंग्वे, चेखब, सार्त्र, मैक्सिम गोर्की, टालस्टॉय आदि हैं। 

डुंगरपुर ज़िले के टामरिया गाँव में 28 सिंतबर 1952 को स्वतंत्रता सेनानी के घर जन्मे श्री जय प्रकाश पांड्या ‘ज्योतिपुंज’ से मेरी अब तक तीन बार मुलाक़ात हो चुकी है। दो बार सलूंबर में, विमला भंडारी जी की ‘सलिला संस्था’ द्वारा आयोजित अखिल भारतीय बाल साहित्य सम्मेलनों में और एक बार राजस्थान साहित्य अकादमी, उदयपुर के प्रेक्षागृह में—जब मुझे राजस्थान साहित्य अकादमी का आलोचना पुरस्कार प्राप्त हुआ और उन्होंने दर्शक दीर्घा से खड़े होकर हाथ हिलाते हुए मुझे बधाई दी थी। फ्रेंच-कट दाढ़ी, हँसमुख चेहरे वाले पांड्या केंद्रीय साहित्य अकादमी और राजस्थान साहित्य अकादमी के सर्वोच्च ‘मीरा पुरस्कार’ के अतिरिक्त अनेक सम्मानों से सम्मानित है। उनकी प्रसिद्ध राजस्थानी कृतियों में ‘बोल डूंगरी टब टनुक’, ‘गोविंद गुरु नो चौपड़ो’ तथा हिन्दी कृतियों में ‘बोल मनु बोलते क्यों नहीं?‘, ‘कसम भूखे भीन की’, ‘नई टापरी का नया दु:ख’ के अतिरिक्त कन्नड़ साहित्यकार चंद्रशेखर के नाटक ‘सिरि सलिंग’ तथा रवींद्र नाथ ठाकुर के एक बांग्ला नाटक का राजस्थानी में अनुवाद किया है। 

ऐसे ही, एक दो वर्ष पूर्व मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल में, डॉ. अखिलेश पालरिया से मिलने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। साहित्य में ‘पीएच.डी.’ वाले डॉक्टर नहीं, बल्कि ‘एमबीबीएस’ वाले असली डॉक्टर। उनका जन्म 28 अगस्त 1956 को अजमेर में हुआ। मध्यप्रदेश राष्ट्र भाषा समिति, भोपाल द्वारा आयोजित सम्मान समारोह में उन्हें और मुझे मध्यप्रदेश के राज्यपाल श्री मंगुभाई पटेल के कर-कमलों से साहित्य के क्षेत्र में उल्लेखनीय योगदान के लिए पुरस्कृत किया गया था। पूछ-ताछ के दौरान पता चला कि वे हमारी एमबीएम इंजीनियरिंग कॉलेज, जोधपुर में खनन अभियांत्रिकी के प्रो. वी.एस. पालरिया के बड़े भाई है। उन्हें वह पुरस्कार 75 किताबों की समीक्षा पर तैयार की हुई, उनकी पुस्तक पर मिला था और मुझे उद्भ्रांत के महाकाव्य ‘राधामाधव’ पर अपनी आलोचना के लिए। व्यंजना पत्रिका में धारावाहिक प्रकाशित होने वाली उनकी आत्मकथा ‘जो भुला न सका’ का मैं नियमित पाठक हूँ, जिसमें उन्होंने अपने 37 वर्षीय चिकित्सकीय सेवाकाल और दीर्घ साहित्यिक यात्रा लिपिबद्ध की है। उनके कहानी-संग्रह ‘मन के रिश्ते’, ‘सूर्योदय से सूर्यास्त तक’, ‘चाहत के रंग’, ‘आखिर मन ही तो है’, ‘डस्टबिन तथा अन्य कहानियां’, ‘पुजारिन व अन्य कहानियां’, ‘कर्त्तव्य पथ’ और ‘मेरी प्रिय कहानियां’ पर अक्सर चर्चा होती रहती है। 

इस तरह, मैं राजस्थान में साहित्य साधकों से अपने यायावरी जीवन के कारण संपर्क साधते हुए कर्त्तव्य पथ पर अग्रसर होता रहता हूँ। सन्‌ 2022 में हिन्दी की हृदय-स्थली रायबरेली के फिरोज गाँधी महाविद्यालय में महावीर प्रसाद द्विवेदी स्मृति संरक्षण अभियान के संयोजक हमारे देश के प्रसिद्ध पत्रकार गौरव अवस्थी द्वारा आयोजित रजत वर्षगाँठ के उपलक्ष्य में पद्मश्री हलधर नाग को डॉ. राम मनोहर त्रिपाठी लोक सेवा सम्मान से सम्मानित किया गया था। मैं इस आयोजन में हलधर नाग के अनुवादक के रूप में शरीक हुआ था और वहाँ विशिष्ट वक्ताओं में आमंत्रित थे प्रसिद्ध आलोचक प्रोफेसर बी.एल. आछा। उनसे बातचीत के दौरान पता चला कि 5 फरवरी 1950 को राजसमंद के देवगढ़ मदरिया में जन्मे प्रोफेसर बी.एल. आछा ने मेरे जन्म स्थान सिरोही के पास पड़ोसी ज़िले जालोर के राजकीय महाविद्यालय में एक साल अध्यापन कार्य किया था। बाद में वे इंदौर चले गए, अपने आगे के अध्यापन कार्य के सिलसिले में। वे राजस्थान अकादमी से पुरस्कृत आलोचक है। उनकी रचनाएँ ‘अक्षरा’, ‘वागर्थ’ जैसी प्रसिद्ध हिन्दी पत्रिकाओं में प्रकाशित होती रहती हैं। उनकी व्यंग्य कृतियाँ मुझे बहुत अच्छी लगती हैं, जिसमें ‘आस्था के बैंगन’, ‘पिताजी का डैडी संस्करण’, ‘मेघदूत का टी.ए. बिल’ प्रमुख है। उनकी मुख्य रचनाओं में ‘आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास’, ‘सृजनात्मक भाषा और आलोचक ‘सृजन का अंतर्पाठ’, ‘रचनात्मक समीक्षा’ आदि है। 

यद्यपि फारूख आफ़रीदी जी से मेरी कभी व्यक्तिग्त मुलाक़ात नहीं हुई, फिर भी उनके प्रति मेरे मन में अगाध श्रद्धा और स्नेहिल भाव है। सन् 1998 में मेरी पहली पुस्तक प्रकाशित हुई थी ‘न हन्यते’, मेरे दिवंगत पिताजी के श्रद्धांजलि-स्वरूप मैंने लिखी थी। यह पुस्तक मेरे संस्मरणात्मक छोटे-छोटे आलेख और कविताओं का संकलन है। मेरी पहली कृति ‘न हन्यते’ और उसके दस साल बाद, मेरे पहले अनूदित उपन्यास ‘पक्षीवास’ मैंने राजस्थान के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री अशोक गहलोत को अवलोकनार्थ भेजी थी। मैंने सपने में भी नहीं सोचा था कि मेरी उन किताबों पर मुख्यमंत्री का अभिमत प्राप्त होगा। मगर सपना साकार हुआ, मुझे उनके अभिमत प्राप्त हुए। उन अभिमत के साथ था एक फार्वडिंग लेटर; जिस पर हस्ताक्षर थे फारूख आफ़रीदी साहब के। यह क़िस्सा मैं कभी भी लिख नहीं पाता, अगर डॉ. प्रभात कुमार सिंघल यह किताब नहीं लिखी होती। आज भी उस फावर्डिंग लेटर और अभिमत को बचाकर रखा है, एक अनमोल अमानत के रूप में। इस पुस्तक में उन पर लिखे आलेख को पढ़ने के बाद पता चला कि 24 दिसंबर 1952 को जोधपुर में जन्म, जोधपुर विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर, राजस्थान प्रगतिशील लेखक संघ के कार्यकारी अध्यक्ष और ‘काव्या’ इंटरनेशनल फ़ॉउंडेशन, राजस्थान चैप्टर के महासचिव आदि-आदि। परसाई परंपरा के व्यंग्यकार होने के कारण उनकी रचनाओं में तीक्ष्ण व्यंग्य देखने को मिलते हैं उदाहरण के तौर पर ‘अपनी छवि सुधारिए, ‘मामूलीराम की डायरी’, ‘बुद्धि का सफ़र स्टॉक’, ‘धन्य है आम आदमी’ आदि। उनकी पुस्तकों में ‘गाँधी जी और आधी दुनिया’, ‘हम सब एक है’ (कहानी-संग्रह), ‘शब्द कभी बाँझ नहीं होते’ (काव्य-संग्रह) मुझे बहुत अच्छी लगती है। ‘कथा’ पत्रिका और राजस्थान पत्रिका में छपे उनके आलेख भी मेरी नज़रों से गुज़रते रहते है। उद्भ्रांत जी के अनन्य मित्र होने के कारण उनसे बातचीत के दौरान उनके नाम का उल्लेख अवश्य आता है। 

फारूख आफ़रीदी जी के बाद मैं नाम लेना चाहूँगा, चूरू के डॉ. नीरज दइया जी का। न कभी फोन पर बातचीत हुई और न ही कभी मेल-मुलाकात। वे मेरे हम उम्र है। मेरे मन में उनसे जुड़ने के पीछे एक ख़ास कारण है, डॉ. सुधीर सक्सेना, मेरे प्रिय कवि। उनकी कविताओं का दइया जी ने राजस्थानी में अनुवाद किया है, जिसे सुधीर जी ने मुझे अवलोकनार्थ भेजी थी। उसे पढ़ने के बाद मेरे मन में नीरज दइया के प्रति सम्मान की भावना जाग उठी। मैंने सुधीर सक्सेना और ओड़िया भाषा के प्रख्यात कवि सीताकांत महापात्र के काव्यों का तुलनात्मक अध्ययन करते हुए ‘दो कविः एक दृष्टि’ आलोचना नामक पुस्तक लिखी थी। प्रसिद्ध लेखक जितेंद्र ‘निर्मोही’ उनके साहित्य कर्म पर टिप्पणी करते हुए लिखते है कि उन्होंने राजस्थानी समालोचना क्षेत्र की परंपरा को बदल दिया है और ऐसे हर राजस्थानी साहित्यिकार पर क़लम चलाई है, जिनको प्रकाश में लाना ज़रूरी था। उनका “राजस्थानी उपन्यास आंगल-सीध” मील का पत्थर साबित हुआ है। 

वेदव्यास जी के अनेक विचारोत्तेजक आलेखों को मैंने उदयपुर के हिम्मत सेठ जी द्वारा संपादित ‘महावीर समता संदेश’ में पढ़ा और यू-टयूब पर उनके अनेक साक्षात्कार भी देखें। साहित्य अकादमी के सर्वोच्च सम्मान ‘साहित्य मनीषी’ से सम्मानित शिक्षा, साहित्य, कला, संस्कृति और पत्रकारिता के क्षेत्र में अनवरत लेखन और जनशिक्षण के लिए समर्पित वेदव्यास जी का जन्म 1 जुलाई 1942 को अविभाजित भारत के सिंध प्रांत में हुआ था। पुश्तैनी गाँव अलवर ज़िले के गढ़ी सवाई राम है। आप राजस्थान साहित्य अकादमी के तीन बार अध्यक्ष रहे। 1964 में आकाशवाणी जयपुर में कार्यरत ओर जून 2002 में सेवा निवृत्त। राजस्थानी भाषा के प्रथम समाचार वाचक। आज भी कानों में गूँजता है यह स्वर—‘अब आप वेद व्यास से राजस्थानी में सुनें’, ‘आपकी धरती हैलो मारे’, ‘राष्ट्रीय धरोहर’, ‘राजस्थान के लोकतीर्थ’, ‘अब नहीं तो कब बोलोगे?’, ‘आजादी रा भागीरथः गांधी’ आदि पुस्तकें बहूचर्चित रही है। उनकी प्रकाशित आठ पुस्तकों में ‘अपना ही गणतंत्र है बंधु’, ‘सुजन के सह-यात्री’, ‘मैं भी जाँऊ, तू भी इबा’, ‘संस्मरण का संदूक समीक्षा के सिक्के’, ‘मामला पानी का’ और ‘मुक्तक शतक’ प्रमुख है। 

13 नवंबर 1937 को उदयपुर के कानोड़ क़स्बे में जन्मे डॉ. महेंद्र भाणावत को मैंने बाल साहित्यिकार राजकुमार की पुस्तक ‘कठपुतली’ पर उनकी लिखी हुई भूमिका पढ़कर अभिभूत हुआ था। आज इस पुस्तक के माध्यम से उनके कृतित्व और व्यक्तित्व के बारे में विस्तार से जानकर बहुत ख़ुशी हुई। आंचलिक लोक-संस्कृति पर काम करने के लिए वे देश के विभिन्न प्रांतों जैसे राजस्थान, गुजरात, मध्यप्रदेश, महाराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, तमिलनाडु में घूम-घूमकर वहाँ की अलग-अलग जातियों, लोकानुरंजनकारी प्रवृतियों, जनजाति सरोकारों तथा कठपुतली, कावड़ जैसी विधाओं पर एक सौ से ज़्यादा किताबें लिखकर देशव्यापी ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय पहचान बनाई है। राजस्थान के लोक-नृत्य, गुजरात के लोक-नृत्य, महाराष्ट्र के लोक-नृत्य, उदयपुर के आदिवासी, “कुंवारे देश के आदिवासी’ जैसी पुस्तकों के अतिरिक्त राजस्थान के लोक देवताओं जैसे तेजाजी, पाबूजी, देवनारायण, काला-गोरा पर अनेक स्वतंत्र पुस्तकें लिखी है। 

ऐसा ही एक और व्यक्तित्व है, चित्तौड़ के निनोर गाँव में 3 मई 1969 को जन्मे विकास दवे जी का। विमला भंडारी जी के किसी यात्रा-संस्मरण की भूमिका लेखक के रूप में मैंने उन्हें पहली बार पढ़ा था। फ़िलहाल वे मध्यप्रदेश साहित्य अकादमी, इंदौर के निदेशक है। बाल-साहित्य में उल्लेखनीय योगदान के अतिरिक्त, वीणा-वादन में प्रवीण, जयदेव के गीत गोविंद पर टिप्पणी, चंडी शतक पर व्याख्या, संगीत पर आधारित ‘संगीत रास’, ‘संगीत मीमाँसा’, ‘संगीत रत्नाकर’, ‘शुद्ध प्रबंध ‘ नामक अनेक ग्रंथों के रचियता है। 

8 जुलाई 1946 को जयपुर के चौमूं ज़िले में जन्मे डॉ. इकराम राजस्थानी सुप्रसिद्ध कवि, लेखक, शायर, गीतकार अंतरराष्ट्रीय कमेंटेर व ब्रॉड कास्टर है, उनका एक सुप्रसिद्ध राजस्थानी गीत “इंजन की सीटी में, म्हारे मन डोले, चला चला रे ड्राइवर गाड़ी होले-होले” हम बचपन से सुनते आ रहे हैं। यह गीत हमारी स्कूल के वार्षिकोत्सव में गाया जाता था। कई बार उस पर नृत्य प्रस्तुति भी होती थी। इकराम राजस्थानी अनुवाद को Heart Transplant की तरह मानते हैं। वे आकाशवाणी के केंद्र निदेशक थे। सेवानिवृत्त होने के बाद इग्नू, ज्ञानवाणी कार्यक्रम में 31 जुलाई 2008 तक स्टेशन मैनेजर रहे। 

एक और महत्त्वपूर्ण साहित्य साधिका है, डॉ. कुसुम खेमानी, जिनकी रचनाएँ लगभग सभी हिंदी पत्रिकाओं के पढ़ने को मिलती हैं। 19 सितम्बर 1949 को चुरू के मंडवा ज़िले में जन्मी लेखिका, स्नात्तकोत्तर की पढ़ाई चुरू से और पीएच. डी. कोलकाता के किसी यूनिवर्सिटी से पूरी करती है। भारतीय भाषा परिषद में 38 वर्षों तक मंत्री, दो दशकों से मासिक पत्रिका ‘वागार्थ’ का संपादन, हिन्दी साहित्य ज्ञानकोष की संयोजिका होने के साथ-साथ पर्यावरण-संरक्षण में भी योगदान देती रही है। वह भाषा को संवाद का माध्यम मानती है, इस वजह से संवाद जितना सीधा, सरल, पारदर्शी और आत्मीय हो—उतना अच्छा मानती है। उनके उपन्यास ‘लालबत्ती की अमृत कथाएँ’, ‘सोनागाछी’, ‘विषकन्याएं’, ‘जड़िया बाई’, ‘गाथा रामभतेरी’, ‘लावण्यदेवी’, बहुचर्चित रहे हैं। उनके कहानी-संग्रहों में ‘अनुगूंज ज़िन्दगी की’, ‘सच कहती कहानियां’, ‘रश्मिरथी माँ’ आदि संग्रहों की अनेक कहानियों के देश की भिन्न-भिन्न भाषाओं में अनुवाद हुआ हैऔर यहाँ तक कि कुछ कहानियों पर टेलीफ़िल्में भी बनी है। 

जैसा कि मैंने पूर्व में कहा है कि राजस्थान से दूर रहने की वजह से मैं राजस्थान के युवा साहित्य साधकों के संपर्क में नहीं आ सका और न ही उनकी रचनाएँ पढ़ने का कोई अवसर प्राप्त हुआ; इस कमी को सिंघल साहब की इस पुस्तक ने पूरा कर दिया। साहित्य के क्षेत्र में यह ज़्यादा ज़रूरी है कि आने वाली पीढ़ी ज़्यादा संवेदनशील और जागरूक हो। परंपराओं के बीज और पूर्वजों का ख़ून इस पीढ़ी की धमनियों में प्रवाहित होता है, अतः उनसे उम्मीद है कि वे अधिक से अधिक उदात्त एवं समाजोपयोगी साहित्य की रचना करें। डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने उन्हें वह मंच प्रदान किया है, जिससे दोनों पीढ़ियों के भीतर संवाद स्थापित हों और दोनों पीढ़ियाँ साहित्यिक दृष्टिकोण से अधिक से अधिक लाभान्वित हो। मैं अपने इस आलेख में राजस्थान के उन साहित्य साधकों की ओर ध्यानाकर्षित करना चाहूँगा; जिनमें मुझे हमारे साहित्य को समृद्ध करने की अपरिमित संभावनाएँ नज़र आती है। 

डॉ. ओम नागर युवा लेखक है राजस्थान के बारां ज़िले के अंटाना गाँव में रहने वाले। जन्म 20 नवम्बर 1980। राजस्थानी मातृभाषा में लेखन के कारण उन्हें बड़े-बड़े पुरस्कारों से नवाज़ा गया है, साहित्य अकादमी, भारतीय ज्ञान पीठ, भारतीय भाषा परिषद आदि की तरफ़ से। वे राजस्थानी भाषा के मूर्धन्य कवि कन्हैया लाल सेठिया से ज़्यादा प्रभावित है। वे कहते थे, “मायड़ भाषा बोलतां/जीननै आवे लाज/इस्या कपूता सै दुखी/आखो देश समाज।” 

ऐसे ही दूसरे युवा आलोचक कवि है, 1974 में जन्मे, पाली के रहने वाले गजेसिंह राजपुरोहित—आप भी राजस्थानी भाषा को मान्यता दिलाने में संघर्षरत है। इसी श्रेणी में नंदू राजस्थानी के नाम भी उल्लेख किया जा सकता है। वे भी मानवीय संवेदनाओं के उभरते रचनाकार है। 23 अप्रेल 1988 को टोंक ज़िले के लक्ष्मीपुरा गाँव में जन्मे। उनकी दो पुस्तकें प्रकाशित हुई है—‘फिर से तम छँट जाएगा’ (काव्य-संग्रह) और दूसरी ‘राजस्थानी कुंडलियों का संग्रह’, ‘कैद मातसी चोर’ (मायड़ भाषा में)। 

इसी श्रेणी में कोटा के कवि उपन्यासकार किशन प्रणय (ज. 3 मार्च 1992) ने भी युवा रचनाकार के तौर पर अच्छी ख़ासी पहचान बनाई है। सन् 1975 में मध्यप्रदेश के मुरैना ज़िले के सबलगढ़ में जन्मी, संप्रति कोटा में रहने वाली रश्मि गर्ग, जिनकी रचनाएँ ‘पीली चूडियाँ’, ‘हाथ का बना स्वेटर’, कहानी-संग्रह ‘प्रतिबिंब’ ओर आलेख संग्रह ‘अंतररश्मियां’ बहुचर्चित रही हैं। 

‘वैदेही गौतम (ज. 1975) गद्य और पद्य दोनों में लिखती है। आपने धर्मवीर भारती के साहित्य पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। उनका साहित्य तुलसीदास से प्रभावित है और मनोविज्ञान सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय और धर्मवीर भारती से। 

6 जुलाई 1983 को जन्मी मीनाक्षी पंवार ‘मीशांत’ उदयपुर की युवा कवयित्री है। उनके कविता-संग्रह ‘महकता पलाश’ को उदयपुर के साहित्यिकार तरुण कुमार दाधीच उनके सृजन को उच्च धरातल पर ले जाने का प्रयास मानते हैं। ये सभी हमारी नई पौध है जो राजस्थानी साहित्य, हिन्दी साहित्य या कहें भारतीय साहित्य को; अपनी अनुभूतियों से लिपिबद्ध कर उन्हें समृद्ध कर हमारा सपना साकार करते हुए अपना कर्त्तव्य पूरा करेंगे और उनकी आने वाली नई पीढ़ी के नए-नए वातायन को खोलेंगे। 

डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की इस पुस्तक ने कई अनमोल रत्नों से परिचय करवाया हैं, जैसे फतेहपुर शेखावटी में सन् 1941 में जन्मे साहित्यिकार, राजेन्द्र केड़िया। उन्होंने 65 वर्ष की आयु में लिखना शुरू किया और फिर पीछे मुड़कर नहीं देखा। अथक अनवरत आगे बढ़ते चलते गए। लोक कहानीकार पद्यश्री विजयदान देथा में उनकी पहली पुस्तक ‘तीसरा नर’ पढ़कर उनकी कहानियों पर सविस्तार पुनर्लेखन की इच्छा ज़ाहिर की थी। किसी भी साहित्यिकार के लिए इससे बड़ा और क्या सम्मान हो सकता है! साहित्य-लेखन उम्र के किसी पड़ाव का इंतज़ार नहीं करता। केड़िया जी राजस्थान को दुनिया के सबसे ख़ूबसूरत स्थान मानते हैं। उसके सामने न कश्मीर, न पेरिस, न वेनिस। उनके कहानी संग्रह ‘जाट रे जाट’, ‘वाह रे जाट!, ‘अमल कांटा’ और उपन्यास ‘मदन बावनिया’, ‘जोग-संजोग’ आदि बहुचर्चित रहे। 

दूसरे रत्न है ‘राजेन्द्र राव’। जिनका जन्म 1944 में कोटा में हुआ, मगर कालांतर में वे कानपुर शिफ़्ट हो गए। जब ‘साप्ताहिक हिंदुस्तान’ में उनकी कथा-शृंखला ‘सोमला भईन राख’ प्रकाशित होती थी तो पाठक बेसब्री से इंतज़ार करते थे। राजेन्द्र राव पेशे से इंजीनियर, मगर मन में साहित्य की धुन सवार। उनकी कहानियाँ ‘साप्ताहिक हिदुस्तान’, ‘धर्मयुग’, ‘सारिका’, ‘कहानी’, ‘रविवार’ आदि पत्र-पत्रिकाओं में छपकर लोकप्रिय हुईं। 

इसी कड़ी में 1964 को जयपुर में जन्मी मंचीय कवयित्री डॉ. मधु खंडेलवाल ‘मधुर’ ने देश-विदेश के अनेक मंचों से काव्य-पाठ करते हुए मानवता एवं प्रेम का संदेश देकर राजस्थान का नाम गौरवान्वित किया है। 1971 में जन्मे अजमेर में शिक्षाविद् मीडिया विशेषज्ञ, कवि कलाकार, नाट्यकार, वेदों पर कार्य करने वाले लेखक, आलोचक डॉ. संदीप अवस्थी की सर्जन-यात्रा भी हिंदी को विश्व दरबार में स्थापित करने में महती भूमिका अदा करती है। 

पूत के पाँव पालने में पहचाने जाते है। ‘जैसी माँ, वैसी बेटी’, ‘जैसा पिता, वैसा पुत्र’, जैसी अनेक कहावतें और लोकोक्तियाँ हमें अक्सर सुनने को मिलती है; मगर ‘जैसा पिता, वैसी बेटी’ जैसी नई लोकोक्ति गढ़ने का कार्य कर रही है साहित्य साधिका शिखा अग्रवाल। इस पुस्तक के लेखक डॉ. प्रभात कुमार सिंघल जी की वह सुपुत्री है। बचपन से ही घर में मिले साहित्यिक परिवेश ने उन्हें समकालीन स्पंदनों को ध्वनित कर साहित्यिक रूप देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की है। न केवल बाल कविताओं की रचना के माध्यम से, बल्कि दूसरी कविता-लेखक में भी सिद्ध हस्त शिखा अग्रवाल अंग्रेज़ी में भी अपने लेखन के माध्यम से विश्व स्तर पर अपनी उपस्थिति दर्ज करवाती है। 

1946 में जन्मे अलवर के देवदत्त शर्मा हिंदी साहित्यिक के गोल्ड मेडिलिस्ट है। आधुनिक हिन्दी महाकाव्यों में दार्शनिक अणुचिंतन विषय पर पीएच.डी. होल्डर भी। राजस्थान के प्रमुख मंदिर, क़िले, मेले, शहीदों, संतों, संग्रहालयों, लोक देवताओं, तीर्थों आदि विषयों पर क़लम चलाने के साथ-साथ जैन दर्शन, अरविंद दर्शन पर भी उल्लेखनीय कार्य किया है। 

यद्यपि डॉ. मंजुला सक्सेना का जन्म 4 अक्टूबर 1956 को उत्तर प्रदेश के बिजनौर ज़िले में हुआ, मगर उनके पिताजी मूलतः बारां के निवासी थे। वे हिंदी, संस्कृत और अँग्रेज़ साहित्य के प्रकांड पंडित थे और पुस्तकों को वे अपनी असली पूँजी मानते थे। मंजुला सक्सेना की चार पुस्तकें ‘बाल कहानियां’, ‘विलक्षण गणितज्ञ श्रीनिवास रामानुजन’, ‘मेहंदी’, ‘पौराणिक देववाद और तुलसीदास’ के अतिरिक्त भारतीय सेना में परम वीरचक्र, महावीर चक्र और वीर चक्र से सम्मानित सेनानियों के जीवन पर आधारित शौर्य-गाथाओं का संकलन ‘रण बांकुरे’ प्रकाशित हुई है। 

बीकानेर में 5 मार्च 1959 को जन्मे प्रभात गोस्वामी व्यंग्य लेखन में सिद्ध हस्त है। ‘बहुमत की बकरी’, ‘चुगली की गुगली’, ‘ऐसा भी क्या सेल्फियाना’, ‘पुस्तक मेले में खोई भाषा’ और ‘प्रभात गोस्वामी के चयनित व्यंग्य’ प्रमुख प्रकाशित पुस्तकें है। देश के लोकप्रिय न्यूज़ चैनल ‘आज तक’ के ‘साहित्य तक’ में उनके विडीयो प्रसारित होते है ओर बॉक्स एफएम रेडियो, जयपुर पर हर बुधवार ‘व्यंग्य के रंगः प्रभात के संग’, में ‘व्यंग्यकारों से साक्षात्कार’। उन्हीं की तरह बीकानेर के एक और साहित्यिकार है, राजेन्द्र जोशी जी, जो अपनी क़लम के माध्यम से नई सोच और नए कलेक्टर से सृजन को नया आयाम दे रहे है। 

राजस्थान साहित्य अकादमी से व्यंग्य लेखन के लिए पुरस्कृत डॉ. अतुल चतुर्वेदी का नाम व्यंग्यकार के रूप में पूरे देश में चिर-परिचित है। उनका जन्म 30 जुलाई 1965 को उत्तरप्रदेश से मैनपुरी में हुआ था, मगर उनके पिता जी नौकरी की तलाश में कोटा आ गए। वह विज्ञान पढ़ना चाहते थे, मगर नियति में हिंदी साहित्य लिखा हुआ था। संभागीय संयुक्त निदेशक शिक्षा कार्यालय, कोटा में सहायक निदेशक पद पर रहते हुए ‘व्यंग्य-लेखन’ में अपना योगदान देते रहे। प्रसिद्ध व्यंग्यकार परसाई से प्रभावित अतुल चतुर्वेदी जी के व्यंग्य-संग्रहों में ‘गणतंत्र बनाम चेंपा’, ‘लोकतंत्र के टेकर’, ‘सपनों के सहारे देश’ और कविता-संग्रहों में, ‘कितने ख़ुश्बू भरे दिन वे’, ‘स्मृतियों में पिता’, ‘घोषणाओं का बसंत’, आदि बहुचर्चित रहे है। 

राजेन्द्र जोशी जी एक अच्छे कवि है, कथाकार है, संस्कृति कर्मी और साक्षरता के पैरोकार है। वे विगत तीन दशकों से हिंदी ओर राजस्थानी में लगातार अपनी क़लम चला रहे हैं। उनका राजस्थानी कहानी-संग्रह, ‘जुम्मै की नमाज’ और खाप पंचायतों पर आधारित कहानी ‘पैला गुण’, बहुचर्चित रही है। 

अब हम मिलते है अजमेर की हैं, डॉ. चंद्रकांता बसंल से। 1 अक्टूबर 1964 को जन्मी लेखिका वह अध्यात्म व संस्कृति में रची-बची है। उनकी दो पुस्तकें ‘सातवें दशक की हिन्दी कहानी’ और ‘स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी कहानी में मानवीय संबंध’ प्रकाशित हुई। 

इसी तरह, 17 नवम्बर 1951 को डॉ. इन्द्र प्रकाश श्रीमाली का जन्म राजसमंद में हुआ, उन्होंने ‘समकालीन हिंदी उपन्यासों में प्रेम’ विषय में पीएच.डी. उपाधि प्राप्त की है। ‘पखेरु नापै आकाश’ राजस्थानी कविता संकलन प्रकाशित हुआ है और उनकी ‘सामान्य हिन्दी ज्ञान’ UGC द्वारा निर्देशित एवं मोहन लाल सुखाड़िया यूनिवर्सिटी, उदयपुर के त्रिवर्षीय, डिग्री कोर्स की संदर्भ पुस्तिका है। इसके अतिरिक्त, ‘आकाशवाणी एवं प्रसारण विद्याएं’, ‘संचार-जनसंचार, रेडियो, टेलीविज़न एवं फिल्म’, ‘आवाज का जादू’, सामुदायिक रेडियो’, ‘आकाशवाणी की अनुभव यात्रा’ आदि अनेक पुस्तकें उनके खाते में शोभायमान है। 

‘भारतीय विज्ञापन में नैतिकता’ विषय पर पीएच.डी. करने वाली डॉ. मधु अग्रवाल का उदयपुर में 1956 में जन्म हुआ था। वह प्रसिद्ध ग़ज़लकार एवं कवयित्री है। भारत सरकार के सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय के ‘भारतेंदु हरिशचंद्र पुरस्कार’ के सम्मानित है। उनके कविता-संग्रह ‘कस्तूरी बसे मन में’, ‘यहाँ सूरज डूबा नहीं’, ‘धूप का आंचल’ आदि चर्चा में रहे हैं और उनकी पीएच.डी. थीसिस ‘भारतीय विज्ञापन में नैतिकता’ एवं अन्य कृतियाँ ‘राजस्थान में सांस्कृतिक जबरन का संरक्षण एवं संवर्धन’ पाठकोपयोगी साबित हुई है, जबकि उनकी कृति ‘विपणन-प्रबंधन’ द्वितीय वाणिज्य में पढ़ाई जाती है। 

27 मई 1958 को जन्मी उदयपुर की डॉ. मंजु चतुर्वेदी प्रतिष्ठित साहित्यिकार है, अपने गुरु तुल्य पिता स्व। नंद चतुर्वेदी जी की तरह। वह भक्तिकालीन कवयित्री मीरा में बहुत प्रकाशित है। अपने ‘पृथ्वी गंधमयी’ काव्य की रचना की है। उनकी आलोचनात्मक कृतियाँ ‘मीराः व्यक्तित्व एवं कृतित्व’, ‘साठोतरी हिंदी कहानी में प्रेम’, ‘स्त्री-विमर्श और हिंदी कहानी’, ‘हिन्दी साहित्य विमर्श’, ‘हिंदी सहित्य का समग्र इतिहास’, ‘भक्तिकाल परिचय एवं प्रवृत्तियां’ एवं ‘रीतिकाल एवं आधुनिक काल’ महत्त्वपूर्ण है। 

1960 में डूंगरपुर के पीढ गाँव में जन्मी महिला सशक्तिकरण को आधार बनाकर हिन्दी भाषा के गद्य-पद्य दोनों विधाओं में लिखती है—रागिनी प्रसाद। जिनके सृजन में आधी आबादी का दुःख झलकता है। 

डॉ. अर्पणा पांडेय का जन्म मैनपुरी, उत्तरप्रदेश में हुआ था, मगर 1988 में शादी के बाद कोटा आ गई। वे भारत के साथ-साथ ढाका में हिंदी सेवी शिक्षिका के रूप में काम करती है। उनका परिवार साहित्यिक सांस्कृतिक और आध्यात्मिक रूप से समृद्ध है। उन्होंने महाकवि कालिदास के मेघदूत का ‘काव्यानुवाद’ किया है, जिस पर आचार्य अग्निमित्र शास्त्री लिखते हैं कि इस अनुवाद में महाकवि जयशंकर प्रसाद, आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी की शास्त्रीय हिंदी की झलक प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि गोचर होती है। उन्होंने कपिल मुनि के सांख्यदर्शन की 72 कारिकाओं का भी काव्यानुवाद किया है। उन्मेष, प्रवासी मन, काव्य-संग्रह में आध्यात्मिक सांस्कृतिक, राष्ट्रीय भाव, पर्यावरण संरक्षण विषयों वाली कविताएँ है। बांग्ला भाषा के लेखक ‘बड़े अली मियां’ की पुस्तक ‘प्रिय गल्प’ का भी हिंदी अनुवाद किया है। ‘पुराणों में शुकदेव’ विषय पर शोध किया है। उनकी संस्मरण कृति ‘विदेशी प्रवास और हिंदी सेवा’ पर वरिष्ठ साहित्यिकार जितेंद्र ‘निर्मोही’ लिखते है कि “अर्पणा पांडेय का अपना शिल्प है। उनके संस्मरणों के मूल में भारतीयता है और दृष्टिकोण में ‘वसुधैव कुटुंबकम्’ का दर्शन। वह बांग्लादेश की मिट्टी में भारतीयता की ख़ुश्बू खोज निकालती है।”

राजस्थान साहित्य अकादमी से सम्मानित अतुल कनक, प्रेम और अध्यात्म से ओत-प्रोत वाले असाधारण कवि है। उनकी सभी कविताएँ सरल, सपाट, छंदमुक्त और गहरे अर्थ वाली होती है। किसी कवि-सम्मेलन में उनके मित्र ने उन पर व्यंग्य किया, “हिंदी में चार कविताएँ लिखकर गला फाड़कर चिल्लाने से तो कोई भी अखिल भारतीय कवि हो सकते है। राजस्थानी में कविता लिखकर दिखाओ तो जानूँ?।” इस व्यंग्योक्ति को उन्होंने गंभीरता से लिया और देखते-देखते राजस्थानी साहित्य लिखने वाले कवियों की अग्रपंक्ति में पहुँच गए। ‘अंतिम तीर्थंकर’ उपन्यास की मन में रूपरेखा तैयार होने के बावजूद काग़ज़ पर नहीं उतर पा रहा था, तो उन्होंने पूरे 550 दिन भोजन त्यागकर अपना मनोरथ पूर्ण किया। ‘जूण जातरा’ और ‘छेक डलो राख’ नामक दो राजस्थानी उपन्यास, “चलो चूना लगाएं’ (हिन्दी व्यंग्य), और ‘अंतिम तीर्थंकर’ (हिन्दी उपन्यास) बहुत प्रसिद्ध हुए। 

राजस्थान में कोटा एक ऐसी जगह है जो न केवल आईआईटी और मेडिकल स्टूडेंटों को अपनी ओर खींचती है, बल्कि उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश आदि प्रदेशों के साहित्यिकार भी इस अंचल की ओर खींचे चले आते है और यहाँ की संस्कृति में घुल-मिलकर यहीं के हो जाते है। इस श्रेणी में एक ऐसा ही नाम है—भगवंत सिंह जादौन ‘मयंक’ का, जिनका जन्म 1 सितंबर 1945 को मध्यप्रदेश में हुआ था। उन्होंने असंख्य मंचों का संचालन, कवि-सम्मेलनों और काव्य-गोष्ठियों में काव्य-पाठ किया। 

इसी शृंखला के एक और शख़्स है—सी.एल. सांखला। कोटा ज़िले के टाकर बाड़ा गाँव के निवासी। राजस्थानी बाल-कहानियां, छंद विधा, पुस्तकों की समीक्षा और भूमिका लेखन में सिद्ध हस्त कवि है और विगत चार दशक से साहित्य सर्जन में लगे हुए है। हेमराज सिंह ‘हेम’ भी कोटा के कवि है, रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की छाप लिए वीर रस वाले कवि। उनकी कविताओं में अध्यात्म और राष्ट्र प्रेम में सुगंध मिलती है। उन्होंने अनेक महाकाव्य, खंड काव्य और कहानियाँ लिखी है। ‘समरांगण’ उनका कृष्णार्जुन संवाद को केन्द्र में रखकर लिखा गया महाकाव्य है, तो राजस्थान के धीरोदात्त नायक-नायिकाओं पर आधारित ‘जयनाद’ खंड काव्य। 

7 अप्रेल 1953 को जन्मे जितेंद्र कुमार शर्मा ‘निर्मोही’ झालावाड़ के निवासी है। हिंदी, उर्दू और ब्रज भाषा के अच्छे जानकार। उनका ‘द्रौपदी’ महाकाव्य ज्ञानपीठ से पुरस्कृत ओड़िया लेखिका प्रतिभा राय के उपन्यास ‘द्रौपदी’ (हिन्दी में) (याज्ञसेनी-मूल ओड़िया में) की याद दिलाती है, जिसमें नारी का अपमान, मूल्यहीनता, हत्या, भ्रष्टाचार, बलात्कार जैसे घृण्य कार्यों के अतिरिक्त नारी मनोविज्ञान और अंतर्मन में अंतर्द्वन्द्व को उकेरा गया है। उनकी कहानियाँ ‘हंस’, ‘कथा प्रवाह’, ‘कथा समय’ आदि में छपकर लोकप्रियता के तुंग को स्पर्श करती है। उनकी एक कहानी ‘एक नज़र का प्यार’ बहुचर्चित रही। विज्ञान में स्नातक होने के बावजूद सेवानिवृत्ति के पश्चात् कोटा खुला विश्वविद्यालय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। वे गर्व से कहते है, “जीवन में कुछ कर सका या नहीं, मगर श्रीमती को साहित्यिकार बना दिया।” उनकी पत्नी श्यामा शर्मा ने बाल रचनाकार के रूप में पहचान बनाई है। ‘निर्मोही’ जी के साहित्य सृजन का फलक व्यापक है। काव्य, निबंध, संस्मरण, समालोचना, उपन्यास, रेडियो नाटक, कहानी-गीत-नवगीत, समीक्षा, मोनोग्राफ आदि विधाओं में उन्होंने कार्य किया है। उनकी पत्नी श्यामा शर्मा ने प्रसिद्ध बाल साहित्यिकार विमला भंडारी, भगवती प्रसाद गौतम, डॉ. तारा लक्ष्मण गहलोत और कमला कमलेश के मध्य अपनी पहचान बनाई है। वे जितेन्द्र ‘निर्मोही’ को अपना प्रेरणास्रोत मानती है। अपने पति की वन और वन्य विभाग में पोस्टिंग होने के कारण उनका प्रकृति की ओर ज़्यादा झुकाव। 

उस डॉ. प्रभात कुमार सिंघल के इस पुस्तक ने एक और साधक खोजा है—कालीचरण राजपूत। जन्म तारीख़ 10 नवंबर 1957। शिक्षाः बीएस.सी. और इलैक्ट्रिकल इंजीनियरिंग में डिप्लोमा। रहने वाले उत्तर प्रदेश के एटा ज़िले में लोधीपुर के। सेवानिवृत्ति के बाद स्वाध्याय और साहित्य सर्जन में लगे हुए है। श्रीमद् भागवत गीता को अपने साहित्य का आधार बनाया है। ‘महारानी अवंती बाई का इतिहास’ उनकी बहुचर्चित पुस्तक है और ‘कुरूवंश पर संकट’ काव्य-संग्रह प्रकाशनाधीन है। 

डॉ. कृष्णा कुमारी कोटा के चेचर गाँव की हैं, जो सूरदास, सुमित्रानंदन पंत, सूर्यकांत त्रिपाठी ‘निराला’, तुलसीदास, रामचंद्र शुक्ल, बिहारी, रहीम, मैथिलीशरण गुप्त से प्रभावित रही है। उनकी पुस्तकों में ‘मैं पुजारिन हूँ’ (काव्य-संग्रह), ‘बहुत प्यार करते हैं शब्द’ (काव्य-संग्रह) ‘भय बिन हो प्रीत’ (निबंध), ‘आओ नैनीताल चलें’ (यात्रा-वृत्तांत) बहुचर्चित रहे हैं। 

मोहन वर्मा राष्ट्र प्रेम को समर्पित और विसंगतियों, विद्रूपताओं और सामाजिक समस्याओं के प्रति समाज में अलख जगाने वाले कवि, गीतकार और ग़ज़लकार की रचना ‘जगतमिथ्या ब्रह्मसत्य’ प्रसिद्ध रही हैं। प्रेम की भावनाओं और प्रकृति शृंगार पर सृजन करने वाली सवाई माधोपुर की मूल निवासी डॉ. प्रीति मीणा ने वृद्ध जनों की आर्थिक सामाजिक समस्याओं का समाज शास्त्रीय अध्ययन पर पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त की है। महादेवी शर्मा से प्रभावित कवयित्री डॉ. प्रीति मीणा का कविता संग्रह ‘गीत केसर, कस्तूरी मन’ प्रकाशित हुआ है। 

कोटा में रहने वाले, अध्यात्म की धरा से पुखर रचनाओं के सर्जक रघुनंदन हरीला ‘रघु’ का जन्म 10 दिसंबर 1949 को हरियाणा में हुआ। पश्चिम मध्य रेलवे के संकेत एवं दूर संचार अभियंता पद से सेवानिवृत्त हुए है। सृजन से आध्यात्मिक धारा बहाने वाले रामेश्वर शर्मा ‘रामू भैया’ का जन्म 1 अक्टूबर 1950 को बूँदी ज़िले के लाखेरी गाँव में हुआ। उनकी गीत पुस्तिका ‘हरिद्वार में द्वार-द्वार’ का लोकार्पण योग गुरु रामदेव जी ने किया, जिसका सीधा प्रसारण ‘आस्था चैनल’ द्वारा विश्व के 159 से भी अधिक राष्ट्रों में देखा गया। इसी प्रकार ‘वंदे मातरम्’ गीतों के हिन्दी काव्यानुवाद का पन्द्रह भाषाओं में पन्द्रह लाख प्रतियों में किया गया, जो कि एक विश्व रिकॉर्ड है। लोक सभा चुनाव के संदर्भ में चुनाव चालीसा को राष्ट्रीय ख्याति प्राप्त चैनलों में लोक हितार्थ दिखा गया। 

1946 में जन्मे, बूँदी के रहने वाले रामस्वरूप मूंदड़ा ने अनेक विधाओं-गीत, ग़ज़ल, हाइकु, मुक्तक, कविताएँ, दोहे, आलेख और समीक्षा आदि को अपने लेखन का आधार बनाया हैं। वे हिंदी और हाड़ौती दोनों में समान अधिकार रखते है। 

कवि विश्वामित्र ‘दाधीच’ साहित्य, संगीत और कला की त्रिवेणी है। 25 नवंबर 1954 में जन्म और कोटा कलेक्ट्रेट से 2024 में सेवानिवृत्ति। अच्छे गायक, वादक कलाकार है। ‘बोल्यों अण बोल्या’, ‘मछलियां रा आंसू’ प्रसिद्ध काव्य-संग्रह है और नारी प्रधान उपन्यास ‘वेदवती’ तथा ‘मंच का मिजाज’ (संस्मरण) लोकप्रिय सिद्ध हुए। 

1 जनवरी 1969 में जन्मे, कोटा में विजय जोशी विज्ञान के विद्यार्थी है, मगर साहित्याकरण ने उन्हें साहित्य, शिक्षा, पत्रकारिता और संचार, कला, संगीत, चित्रकारी, आलेख, समीक्षा की ओर ले गया। उनके उपन्यास ‘चीखते चौबारे’, ‘रिश्ते हुए रिश्ते’, कहानी संग्रह ‘खामोश गलियारे’, ‘कैनवास से परे’, ‘कुहासे का सफर’, बिंधे हुए रिश्ते’, ‘खिसकती वादियां’, ‘सुलगता मौन’; बाल कहानी-संग्रह ‘बदल गया मिंकू’ राजस्थानी कहानी-संग्रह ‘मंदर में एक दिन’ के अतिरिक्त पाँच समीक्षात्मक कृतियाँ ‘आखर निरख; पोथी परख’, ‘समीक्षा के पथ पर’, ‘अपने समय की बानगी; निकश पर’, ‘अनुभूति के पथ परः जीवन की बातें’, कहानीकार प्रह्लाद सिंह राठौडः कथ्य एवं शिल्प’ प्रसिद्ध है। उन्होंने उर्दू कहानी-संग्रह ‘वादे सवा का इंतज़ार’ का ‘पुरवा की उड़ीक’ के नाम से राजस्थानी अनुवाद भी किया है। उनके साहित्य का मूल्यांकन भी बहुत सारे विद्वानों द्वारा किया गया है। पाँच शोधार्थियों ने शोध भी किया है। 

गद्य-पद्य विधा में प्रसिद्ध रचनाकार डॉ. इंदुशेखर ‘तत्पुरुष’ का जन्म 9 अक्टूबर 1962 को राजस्थान के गंगापुर सिटी में हुआ था। पेशे से आयुर्वेद चिकित्सक है और मन से साहित्यिकार। उनकी पुस्तकों में ‘हिदुत्व एक विमर्श’ (आलेख-संग्रह), ‘खिली धूप में बारिश’, ‘पीठ पर आंच’ (कविता-संग्रह) के अतिरिक्त ‘अर्थायाम’, ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’, ‘साहित्य परिक्रमा’ का संपादन कर रहे है। 

डॉ. परुषोत्तम यक़ीन राजस्थान के करौली के प्रसिद्ध ग़ज़लकार है। अपने तीखे तेवर, अनूठी अभिव्यक्ति और अपने अंदाज़ के लिए प्रसिद्ध है। बाल मुकुंद ओझा बिना नागा किए प्रतिदिन आलेख लिखते है। उनकी दो पुस्तकें ‘लोकतंत्र का पोस्टमार्टम’ और ‘शिकायत झूठी है’ (लघुकथा) बहुचर्चित रही है। इसमें अतिरिक्त, “जब बाड को खेत खा जाए’ (कहानी) ‘खेत और ख़ुशी’, ‘मेहनत की रोटी’, ‘बजट’, आदि लघु कथाएँ पाठकों द्वारा आदृत हुई है। सन् 1953 में चुरू में जन्मे मानवीय संवेदनाओं के रचनाकार बालमुकुंद ओझा जन संपर्क अधिकार और संयुक्त निदेशक पद से सेवानिवृत्त हुए। सन् 1974 से 1979 तक दैनिक राजस्थान पत्रिका के संवाददाता बने। जे.पी. आंदोलन में सक्रिय भागीदारी के कारण गिरफ़्तार हुए और जेल की यंत्रणा भी भोगनी पड़ी। 

राजस्थान साहित्य अकादमी से पुरस्कृत लेखक दीनदयाल शर्मा को बाल साहित्य के क्षेत्र में देशभर में जाने जाते हैं। 15 जुलाई 1956 को हनुमानगढ़ ज़िले में जन्म हुआ। ‘दीनदयाल की चौपाल’ और अपने यू-टयूब चैनल के लिए लोकप्रिय है। सन् 1975 में हिन्दी में लिखना शुरू किया, मगर दस साल बाद सन् 1985 में राजस्थानी में मूल विद्या ‘बाल साहित्य’ है। 63 पुस्तकें प्रकाशित है, जिसमें ‘बालपणे री बातां’, ‘एक टाबर की डायरी’, ‘कुछ अनेक ही बातें’ (जिसके 101 साहित्यिकारों ने उन पर लिखा हैं) और ‘टाबर टोली’ (पाक्षिक बाल समाचार पत्र) के लिए प्रसिद्ध है। 

7 अक्टूबर 1943 में रतनगर, चुरू में जन्मे श्याम महर्षि, बीकानेर ज़िले के डूंगरपुर के रचनाकार माने जाते है। उनके काव्य-संग्रह ‘उकलती ओकल’, ‘साच तो है’, ‘मेह सूं पैलया’, ‘कीं तो बोल’ आदि राजस्थानी पाठकों द्वारा पसंद किए गए है। 

अंत में, मैं विजय जोशी की भूमिका के निष्कर्ष से मैं पूरी तरह सहमत हूँ, जिसमें उन्होंने लिखा है कि डॉ. प्रभात कुमार सिंघल की यह पुस्तक राजस्थान के साहित्यिकारों की गहन संवेदना और उनके रचाव को उद्घाटित करती है। यह वह रचाव है, जो इन साहित्यिकारों ने राजस्थान की धरापर ही नहीं उकेरा, वरन् अपने प्रवास की धरती के आँगन को भी स्पंदित किया है। यह स्पंदन वरिष्ठ लेखकों के साथ-साथ नवोदित सृजन-कर्मियों के साथ ध्वनित होता हुआ रचनात्मक संस्कारों को अनूदित करता है और साहित्य के विविध आगामी संदर्भो में सृजनात्मक वैशिष्ट्य को प्रतिपादित तो करता ही है, उल्लेखित साहित्यिकारों के योगदान को समझने और परखने का अवसर भी प्रदान करता है।”

निस्संदेह, डॉ प्रभात कुमार सिंघल की ‘राजस्थान के साहित्य साधक’ अत्यंत सार्थक कृति बनती, अगर एकाध अध्याय में वे हमारे प्रसिद्ध पूर्वज साहित्यिकारों जैसे चंद्रधर शर्मा गुलेरी (1883-1922), दादू दयाल (1544-1103), मीरा (1498-1546), संत पीपा (1359-1420), आईदान सिंह भाटी (1952), राघेय राघव (1923-1962), विजयदान देथा (1926-2013), नंद चतुर्वेदी (1923-2014), हनुमान प्रसाद पोद्दार (1872-1931), हरीश भादानी (1933-2009), कन्हैयालाल सेठिया (1919-2005), मदनलाल डांगी (1935-1988) आदि का संक्षिप्त उल्लेख करते और समकालीन साहित्यिकारों और पत्रकारों में नंद किशोर आचार्य, ओम थानवी, मनीषा कुलश्रेष्ठ, अंबिका दत्त, हरिराम मीणा, हिम्मत सेठ, दुर्गा प्रसाद अग्रवाल, पद्मजा शर्मा, ओमपुरोहित ‘कागद’ आदि के व्यक्तित्व और कृतित्व पर भी प्रकाश डालते। 

अंत में, इतना ही कहूँगा कि यह पुस्तक अनेक देदीप्यमान साहित्यिकारों का लेखा-जोखा है, जिसके लिए पृष्ठ भूमि तैयार की है, डॉ. प्रभात कुमार सिंघल ने। उन्होंने एक ऐसा मंच तैयार किया है, जिसके द्वारा न केवल पाठक वर्ग, बल्कि नवोदित और स्थापित लेखक, साहित्यिकार भी एक-दूसरे के कृतित्व और व्यक्तित्व से परिचित हो सकते हैं। कई बार ऐसा भी होता है कि हम साहित्यिकारों के नाम जानते हो अवश्य हैं, लेकिन उनके समग्र व्यक्तित्व और कृतित्व से अपरिचित होते हैं। भले ही, उनकी एक-दो रचनाओं से हम गुज़रे भी होते हैं, मगर उनके वृत्तीय आकलन से वंचित रहते हैं। इस कमी को पूरा करते है, डॉ. प्रभात कुमार सिंघल जैसे संवेदनशील साहित्यिकार, पेशे से खोजी पत्रकार। जो साहित्य के विशाल महासागर की अथाह गहरायों में गोते लगाते हैं और खोजकर ले आते हैं, अपने हाथों में बहूमूल्य मुक्ता-मोती-प्रवाल। बाद में, उसकी माला पिरोकर समाजोपयोगी बनाकर पाठकों के समक्ष प्रस्तुत कर देते हैं, ताकि वे अपने मनपसंदीदा व्यक्तित्व और उनके कृतित्व से वाक़िफ़ होकर इसकी माला आगे से आगे पिरोते चलेजाए। अथक, अनवरत और शृंखलाबद्ध मानो एक जले हुए दीए से दूसरे बुझे हुए दीए या मंद पड़ रहे दीए को जलाकर दीपों की एक दीर्घ अवली तैयार की जा रही हो। यह ही तो साहित्य की सच्ची दीपावली है। उनकी यह पुस्तक न केवल राजस्थान के साहित्यिकारों को जोड़ती है, बल्कि देश के अन्य समकालीन साहित्यिकारों को एकता के सूत्र में पिरोने के लिए भी प्रेरणा-स्रोत बनकर अतुलनीय उदाहरण प्रस्तुत करती है। 

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